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सूत्र संवेदना - ५
सिद्ध अवस्था ही साधक की सिद्धि है, उसकी साधना का लक्ष्य है, हर एक प्रवृत्ति का केन्द्र बिन्दु वही है, इसलिए प्रातः काल में अनंत सिद्धों को वंदन कर साधक को अपने लक्ष्य को याद करके उसे शुद्ध करना है।
स्थावर तीर्थों को वंदन करने के बाद अब अंत में जंगमतीर्थ की वंदना की गई है।
२. साधु भगवंतों को वंदना :
अढ़ीद्वीपमा जे अणगार, अढ़ार सहस शीलांगना धार, पंचमहाव्रत समिति सार, पाले पलावे पंचाचार ||४|| बाह्य अभ्यंतर तप उजमाल, ते मुनि वंदुं गुणमणिमाल, नितनित ऊठी कीर्ति करूं, जीव कहे भव- सायर तरु ।।५।। गाथार्थ :
ढ़ाई द्वीप में अठारह हज़ार शीलांग रथ को धारण करनेवाले, पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा पंचाचार को स्वयं पालनेवाले और दूसरों से भी पालन करवानेवाले तथा बाह्य अभ्यंतर तप में उद्यमशील, गुणरूपी रत्नों की माला को धारण करनेवाले मुनियों को मैं वंदन करता हूँ। 'जीव' अर्थात् श्री जीवविजयजी महाराज कहते हैं कि नित्य प्रातःकाल उठकर इन सबका कीर्तन करने से मैं भवसागर पार उतर जाऊँ ।
विशेषार्थ :
सुविशुद्ध संयम को धारण करनेवाले साधु-साध्वीजी भगवंत स्वयं संसार सागर से पार उतरते हैं और दूसरों को भी उतारने में सहायक बनते हैं इसलिए वे भी तीर्थ कहलाते हैं परन्तु उनको जंगम तीर्थ कहते हैं, क्योंकि वे स्व-पर के कल्याण के लिए भगवान की आज्ञानुसार
एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार आदि करते हैं।.