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सूत्र संवेदना - ५
" हे जयादेवी ! जिन-जिन सत्कार्यों का आप प्रारंभ करें, उनमें आपको पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो ! कमज़ोर तत्त्वों से आप कभी भी पराजित न हों !" परम पूज्य मानदेवसूरीश्वरजी महाराज इन शब्दों द्वारा जयादेवी को जय प्राप्त करने का आशीर्वाद दे रहे हैं।
यहाँ प्रश्न होता है कि क्या संयमी आत्माएँ इस प्रकार देवी को आशीर्वाद दे सकती हैं ? सोचने से लगता है कि संघादि के संरक्षण रूप शुभ कार्य के लिए इस प्रकार आशीर्वाद देना या शुभ मनोकामना व्यक्त करना किसी भी प्रकार से अयोग्य नहीं है । परिस्थिति को जाननेवाले आचार्य भगवंतों का ऐसे समय में देवी को जागृत करना योग्य ही है । अवतरणिका :
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विजयादेवी श्रीसंघ तथा साधु भगवंतों के लिए क्या करती हैं, वह बताकर अब भव्य प्राणियों के लिए वे क्या करती हैं, यह बताया गया है
गाथा :
भव्यानां कृतसिद्धे ! निर्वृति- निर्वाण - जननि सत्त्वानाम् ! । अभय-प्रदान-निरते ! नमोऽस्तु स्वस्ति- प्रदे तुभ्यम् ।।९।।
अन्वय :
भव्यानां सत्त्वानाम् कृतसिद्धे ! निर्वृति- निर्वाण-जननि ! । अभय-प्रदान-निरते ! स्वस्ति- प्रदे ! तुभ्यं नमोऽस्तु ।।९।।
गाथार्थ :
भव्य-प्राणियों के कार्य को सिद्ध करनेवाली; निर्वृति अर्थात् शांति और निर्वाण अर्थात् परम प्रमोद प्राप्त करवानेवाली; अभयदान देने में तत्पर और कल्याण करनेवाली हे देवी ! आपको नमस्कार हो ।