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सूत्र संवेदना - ५
सामग्री प्रदान कर, संघ का भद्र करती हैं। कल्याण अर्थात् आरोग्य | संसार के जीव क्षयादि द्रव्य रोगों से और राग, द्वेष वगैरह भाव रोगों में फँस रहे हैं। श्रीसंघ में ऐसे किसी भी प्रकार के रोग का विशेष उपद्रव हो, तब देवी उसे शांत करने का प्रयत्न करती हैं, इसलिए वे श्रीसंघ का कल्याण करनेवाली कहलाती हैं । मंगल अर्थात् दुःख, दुरित या विघ्नों का नाश । श्रीसंघ में किसी भी प्रकार का दुःख, दुरित या विघ्न उत्पन्न हो, तो देवी उसका नाश करने के लिए तुरन्त हाज़िर होती हैं, इसलिए उन्हें श्रीसंघ का मंगल करनेवाली भी कहा जाता है।
यद्यपि भद्र, कल्याण या मंगल अपने पुण्य और पुरुषार्थ के अधीन है, फिर भी योग्य पुरुषार्थ और पुण्य का उदय करने में देवी की सहाय कुछ अंशों तक उपकारक बनती है, इसलिए यहाँ देवी को भद्र आदि करनेवाली कहा गया है, इसमें कोई दोष नहीं हैं ।
साधूनां 26 च सदा शिव - सुतुष्टि - पुष्टि - प्रदे साधु-साध्वीजी भगवंतों के लिए हमेशा शिव, संतोष और धर्म की वृद्धि करनेवाली ( ऐसी हे देवी! आप को जय प्राप्त हो ।)
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स्तवनकार इन शब्दों के द्वारा कहते हैं, "हे विजयादेवी! श्रीसंघ का तो आप भद्र, कल्याण आदि करती हैं और उसमें भी संघ में जो मुख्य स्थान पर हैं, जो प्रतिपल मोक्ष की सुंदर साधना कर संयम जीवन का निर्वाह कर रहे हैं ऐसे साधु भगवंतों और साध्वीजी भगवंतों का तो आप विशेष तौर पर कल्याण करती हैं । उनको संतोष देती हैं और उनकी गुणवृद्धि करने में सहायक बनती हैं । "
शिव का अर्थ है निरुपद्रवता । संयम की साधना में आनेवाले प्रत्येक उपद्रव को देवी दूर करती हैं । उनको जैसे ही पता चलता है 26. मंत्रशास्त्र के प्रमाण से जगत् - मंगल - कवच की रचना में साधु-साध्वी रूप श्रमण समुदाय से वदन = मुख को ग्रहण करना है ।