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________________ धर्माराधना से उपसंहार गाथा - ४६ अनादिकाल से जीव में कथाओं (विकथाओं) का रस पड़ा है। इस रस के कारण राज्य की, देश की, भोजन की, स्त्रियों की, बाज़ार की या खेलकूद की कथाओं में जीव ने अनंत कर्म बांधे हैं। फल स्वरूप वह अपना अमूल्य मनुष्य भव व्यर्थ गँवा देता है एवं अनंत भव बढ़ा लेता है। विकथा के रस से या अन्य कोई भी कारण से बांधे हुए कर्मों को तोड़ने एवं भव-भ्रमण को रोकने के लिए श्रावक को अब चौबीस जिनों की कथा करने का मन होता है। २८१ सर्व तीर्थंकर अनंत गुणों के धाम हैं, तो भी नज़दीक के काल में एवं इसी भरत क्षेत्र में हुए चौबीस तीर्थंकर हमारे सविशेष उपकारी हैं। वे सर्वगुण संपन्न हैं और उनके जीवन की एक-एक घटना, उनके प्रत्येक प्रसंग, एक दूसरे के साथ किया हुआ व्यवहार, उनका साधना जीवन, साधना - जीवन में हुए मरणांत उपसर्ग और परिषहों के बीच रही हुई उनके मन की समतुला - इन हर एक की कथा सुनने या करने से, हम को जीवन जीने की एक नई ही दिशा मिलती है, दोषों को दूर करने एवं गुणों के मार्ग पर आगे बढ़ने का सुन्दर मार्गदर्शन मिलता है। चौबीस जनों के गुणों का स्मरण, एकाग्र चित्त से किया हुआ उनके नाम का जाप, उनका ध्यान, पूर्व संचित अनंत कर्मों का क्षय कर देता है। इसके अलावा भ्रमण के कारणभूत, अशुभ कर्मों का अनुबंध भी तोड़ डालता है। इससे चौबीस जिन की कथाएँ बहुत से भवों में एकत्रित किए हुए कर्मों का नाश करनेवाली तथा लाखों भवों का मंथन करनेवाली कहलाती हैं। चौबीस जिन विनिर्गत ( चौबीस जिनों से निकली हुई) कथा का एक अर्थ जैसे चौबीस जिन के चरित्र या नामोच्चार वगैरह होता है, वैसे ही विनिर्गत कथाओं का दूसरा अर्थ चौबीस जिन के मुखकमल में से निकली हुई वाणी भी हो सकता है। इस वाणी का संग्रह ही शास्त्र है। भगवान के वचन रूपी मोती बिखर न जाएँ, इसलिए गणधर भगवंत एवं उनके बाद हुए अनेक साधु भगवंतों ने उन वचनों को शास्त्ररूप धागे में निबद्ध किया हैं, बांधा है। शास्त्र के एक - एक वचन में रागादि दोषों को निर्मूल करने की एवं ज्ञानादि गुणों को प्रकट करने की विशिष्ट शक्ति है। इसके अतिरिक्त उनमें हिंसा, झूठ, चोरी आदि के कुसंस्कारों का अंत करने की एवं अहिंसा, सत्य आदि के संस्कारों का आधान करवाने की ताकत भरी हुई है । तदुपरांत भगवान की वाणी विकथा आदि प्रमाद के रस का शोषण करके सत्य कथा के रस को पुष्ट करती है।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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