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धर्माराधना से उपसंहार गाथा- ४६
निमित्त उत्पन्न होते ही मैं वापस पाप के मार्ग पर चल बसता हूँ । धन्य हैं ! वे महात्मा, जिन्होंने मेरे जैसे ही काल में जन्म लिया है । उनमें भी मेरे जितनी ही शक्ति है, पर वे अपने मन-वचन-काया को काबू में रख सकते हैं । इसलिए वे एकबार जिस पाप का प्रतिक्रमण करते हैं उस पाप का वे प्रायः पुनः सेवन नहीं करतें । प्रतिक्रमण करके वे अपने पाप करने के संस्कार को ही नष्ट कर देते हैं । उनके चरणों में मस्तक झुकाकर प्रार्थना करता हूँ कि, भगवंत ! ऐसा सत्त्व प्रदान करो कि मैं भी प्रतिक्रमण के विशुद्ध भाव तक पहुंच सकूँ ।'
अवतरणिका :
इस प्रकार से चौबीस जिनों को, सर्व जिन प्रतिमाओं को तथा सर्व साधु भगवंतों को प्रणाम करके अब भविष्य के लिए भी शुभ भावों की अभिलाषा व्यक्त करते हुए सुश्रावक कहता है -
गाथा :
चिर-संचिअ - पाव-पणासणीइ, भव-सय- सहस्स महणीए । चउवीस - जिण - विणिग्गय-कहाइ वोलंतु मे दिअहा ।। ४६ ।।
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अन्वय सहित संस्कृत छाया :
चिर- सञ्चित - पाप-प्रणाशन्या, भव - शत - सहस्रमथन्या । चतुर्विंशति- जिन-विनिर्गत-कथया मम दिवसा गच्छन्तु ।। ४६ ।। गाथार्थ :
लम्बे समय से एकत्रित किए हुए पापों का नाश करने वाली एवं लाखों भवों का विनाश करने वाली चौबीस जिनेश्वरों के मुखारविंद से निकली हुई कथाओं में मेरा दिन व्यतीत हो ।
विशेषार्थ :
चिर-संचिअ - पाव-पणासणीइ - चिर समय से संचित पापकर्मों का नाश करने वाली ।
तीर्थंकर की कथाएँ या उनकी वाणी, चिर काल से याने कि अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करते हुए एकत्रित किए हुए पापों को प्रकृष्ट रीति से नाश करने