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वंदित्तु सूत्र
स्वीकार करता है एवं गुरु नहीं मिले तो ज्ञानादि उपकरणों में गुरु की स्थापना कर, 'गुरुभगवंत मेरे समक्ष ही है' ऐसा भाव हृदय में धारण कर, नतमस्तक होकर जो पाप, जिस प्रकार, जिस भाव से किए हों उन पापों की उसी प्रकार से आलोचना करके, श्रावक अपने अनुचित कृत्यों की निन्दा करते हुए कहता है कि, हे भगवंत ! संसार के राग के कारण अथवा प्रमाद के कारण मैंने बहुत पापकर्म किए हैं, वह मैंने गलत किया है। मेरे प्रमादादि दोषों को धिक्कार है !'
इस रीति से आलोचना एवं निन्दा करने का जो परिणाम प्राप्त होता है, उसे बताते हैं -
होइ अइरेग लहुओ - अत्यंत हलका हो जाता है। पापों के भार से दबा हुआ श्रावक भी, गुरु के समक्ष इस रीति से आलोचना एवं निन्दा करके अत्यन्त हलका हो जाता है। जब तक इस रीति से आलोचना नहीं
की थी तब तक उसके मन के ऊपर पाप का बोझ था, 'इस पाप से मेरा क्या होगा? उसकी चिंता थी, पाप के कैसे फल भुगतने पड़ेंगे ? उसका भय था, परंतु एक बार, सरल भाव से, पश्चात्ताप पूर्वक, गुरुभगवंत के पास जो पाप, जिस रीति से हुआ हो उसका स्वीकार करके एवं गुरुभगवंत के द्वारा दिया प्रायश्चित्त स्वीकार करने के बाद, उसे विश्वास हो जाता है कि अब मुझे कोई चिंता नहीं, अब मुझे कोई डर नहीं, अब मुझे पाप के कटु-परिणाम नहीं भुगतने पड़ेंगे। इस रीति से वह पाप के भार से मुक्त होकर फूल जैसा हलका हो जाता है। उसका हलकापन कैसा है वह सूत्रकार एक दृष्टांत से बताते हैं -
ओहरिअ - भरू व्व भारवहो - भारवाहक मज़दूर जैसे भार को दूर करके हलका हो जाता है (वैसे)।
अपनी क्षमता से अधिक वजन उठाता हुआ मज़दूर जब थक जाता है, तब कब इस भार को उतार कर हलकाई का अनुभव करूँ? ऐसा सोचता रहता है। योग्य स्थान मिलने पर वह भार को उतार कर ‘हाश ! अब हलका हुआ' - ऐसे हलकेपन का अनुभव करता है। उसी प्रकार प्रतिक्रमण करनेवाला श्रावक भी प्रतिक्रमण द्वारा मानसिक भार को उतारकर हलकेपन का अनुभव करता है।