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वंदित्तु सूत्र
विशेषार्थ :
सम्मद्दिट्ठी जीवो जइ वि हु पावं समायरइ किंचि - सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि थोड़े पाप का आचरण करता है।
भावपूर्वक प्रतिक्रमण करने वाला श्रावक प्रायः सम्यग्दृष्टि होता है। वह पाप कर्मों को एवं उनके फलों को भली भांति जानता है। इसी कारण वह पाप से होने वाली दुर्गति की परंपरा को नहीं चाहता । अतः जहाँ तक संभव हो वहाँ तक वह पाप करता ही नहीं। ऐसा होते हुए भी संसार के प्रति आसक्ति होने के कारण एवं सर्वांश से पाप व्यापार का त्याग करने में समर्थ न होने के कारण, कितने पाप तो उसे लाचारी से करने ही पड़ते हैं, जैसे कि धनार्जन के लिए व्यापार, कुटुंब के पालन-पोषण के लिए रसोई करना इत्यादि, इन सब कार्यों में हिंसादि पापों की संभावना रहती हैं।
अप्पोसि होइ बंधो जेण न निद्धंधसं कुणइ - सम्यग्दृष्टि जीव पाप करता है परंतु जिस कारण से उसका अध्यवसाय निर्ध्वंस - निर्दयी नहीं होता, उस कारण उसको अल्प कर्म बंध होता है।
सम्यग्दृष्टि जीव संसार में रहता है परंतु उसका मन मोक्ष' में होता है। इसलिए 1. भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो मोक्षे चित्तं भवे तनुः। तस्य तत् सर्व एवेह योगो योगो हि भावतः।।
योगबिन्दु -२०३ श्लो ग्रन्थि भेद करनेवाले सम्यग्दृष्टि का जिस कारण से चित्त प्रायः मोक्ष में एवं शरीर संसार में होता है, उस कारण से उसका सम्पूर्ण व्यवहार भाव से योग ही है। नार्या यथाऽन्यसक्तायास्तत्र भावे सदा स्थिते। तद्योग: पापबन्धश्च तथा मोक्षेऽस्य दृश्यताम्।। योगबिन्दु - २०४ श्लो जिस प्रकार अन्य पुरुष में आसक्त नारी का मन सदा अन्य पुरुष में ही होता है, इसलिए उसकी पति की देखभाल करना आदि सभी अच्छी प्रवृत्तियाँ भी पापबन्ध रूप ही होती हैं। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि संसार में होते हुए भी उसका चित्त मोक्ष में होने के कारण उसके सम्पूर्ण व्यापार भाव से योग ही कहलाते हैं। न चेह ग्रन्थिभेदेन पश्यतो भावमुत्तमम्। इतरेणाऽऽकुलस्यापि तत्र चित्तं न जायते॥
योगबिन्दु - २०५ श्लो ग्रन्थि भेद द्वारा मोक्ष के उत्तम भावों को देखनेवाला सम्यग्दृष्टि कभी ईतर से = संसार की कोई क्रिया से, आकुल हुआ हो तो भी उसका चित्त मोक्ष में नहीं होता ऐसा नहीं होता; अर्थात् उसका चित्त तो मोक्ष में ही होता है।