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________________ २४६ वंदित्तु सूत्र वंदन आदि क्रिया नहीं करने से या विपरीत करने से श्रावक को उस क्रिया विषयक दोष लगते हैं एवं जो चीजें करने योग्य नहीं है वैसे कषाय आदि करने से श्रावक की आत्मा कर्ममल से मलिन होती है, जिससे आत्मा पर भव की परंपराओं को बिगाड़ने वाले अशुभ संस्कार पड़ते हैं। अतः इस गाथा का उच्चारण करते समय श्रावक दिवस संबंधी अपनी शुभाशुभ प्रवृत्ति पर दृष्टिपात करता है एवं उनमें जहां त्रुटियाँ रही हों, खुद चूका हो, नहीं करने योग्य हो गया हो, करने योग्य रह गया हो अथवा अयोग्य हुआ हो, उनको याद करता है । उन भूलों की आलोचना, निन्दा एवं गर्हा करके पुन: ऐसा ना हो उस लिए संकल्प करता है। इस तरह वह शुभानुष्ठान में स्थिर रहने का यत्न करता है। इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि 'दिनभर में मैंने गुरुवंदन आदि सत्क्रिया करने का प्रयत्न ज़रूर किया है, पर उसमें बहुत बार मेरी गलतियाँ हो गई हैं । कभी बाह्य क्रिया की है तो अंतरंग भावो से मैं भावित नहीं हुआ । कभी भाव किए हैं तो क्रिया में त्रुटियाँ रही हैं । विधि का ध्यान में नहीं रख सका । ये सब मैंने गलत किया है । आज ऐसे जो भी अपराध हो गए हैं उनकी आलोचना, निन्दा करके में गुरु समक्ष उनकी गर्दा करता हूँ । आगे से ऐसी गलतियाँ न हो जाएँ उसका संकल्प करके, पुनः सुविशुद्ध अनुष्ठान में स्थिर होने का प्रयत्न करता हूँ।'
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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