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वंदित्तु सूत्र
मोक्ष का अनन्य साधन संयम है और संयमी आत्मा के प्रति आदर, सत्कार एवं बहुमान से संयम की प्राप्ति होती है। अतः श्रावक सदैव सोचता है कि ऐसे गुण सम्पन्न आत्मा की भक्ति करके मैं अपनी आत्मा को संसार सागर से पार उतरूँ ।
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संसार सागर से तरने की भावना से श्रावक पर्व दिनों में पौषध करता है। दूसरे दिन सुंदर वस्त्र, अलंकारों से सजकर उपाश्रय जाकर महात्माओं को आहार- पानी के लिए निमंत्रण देता है। मुनि भगवंत भी विलंब किए बिना ईर्यासमिति पालते हुए उसके साथ जाते हैं। विलंब करने से श्रावक को भोजन के लिए देर होती है, उससे अंतराय पड़ता है एवं साधु को पूर्वकर्मादि दोष लगने की संभावना रहती है। मुनि भगवंत के साथ श्रावक राजमार्ग पर चलता है, घर में आए हुए मुनि भगवंत को आसन ग्रहण करने की विनती करता है। कारण हो तो मुनि भगवंत उस आसन का उपयोग करते हैं, वरना निषेध करते हैं। उसके बाद व्रतधारी श्रावक अपने हाथ से ही प्रथम उत्तम द्रव्य एवं बाद में अन्य द्रव्य वोहराता है। कई बार घर का अन्य व्यक्ति दान देता हो तो भी व्रतधारी श्रावक बहुमानपूर्वक योग्य आहार का भाजन अपने में रखकर वहाँ ही खड़ा रहता है। मुनि भगवंत भी उसके पात्र में से अपने संयम के लिए उपयोगी कुछ आहार ग्रहण करते हैं; पर उसका पात्र संपूर्णतया खाली हो जाए उतना नहीं लेते क्योंकि वैसा करने में पश्चात् कर्म दोष लगने की
(४) सत्कार - आदर सहित वोहराना, निमंत्रण देने जाना, उनके आने की खबर मिले तो सामने लेने जाना, वोहराने के बाद थोड़ी दूर तक छोड़ने जाना वगैरह सत्कारपूर्वक दान
करना ।
(५) क्रम श्रेष्ठ वस्तु का या जो जिस समय ज़रूरी हो उस वस्तु का पहले निमंत्रण करना, बाद में दूसरी वस्तु का निमंत्रण करना, अथवा जिस देश में जो क्रम हो उस क्रम से वोहराना ।
(६) कल्पनीय - आधाकर्म आदि दोष से रहित, संयम के लिए उपकारक बने, ऐसी वस्तु कल्पनीय है अथवा तमाम वस्तुओं के नाम बताकर महात्मा की इच्छानुसार जरूरी चीजें वोहराना, उसे भी कल्पनीय कहते हैं।
4A पूर्वकर्म - दान देने के पहले हाथ, पात्र धोना, रसोई गरम करनी आदि पूर्वकर्म जिसमें हुआ हो वैसी भिक्षा वोहरने से पूर्वकर्म नाम का दोष लगता है।
4B पश्चात्कर्म - दान देने के बाद पात्र या हाथ धोने में पानी का उपयोग करने रूप 'पश्चात् कर्म' जिसमें हो वैसी भिक्षा वोहरने से पश्चात्कर्म नाम का दोष लगता है।