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वंदित्तु सूत्र
विशेषार्थ :
'देशावकाशिक व्रत' सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों में दसवाँ एवं शिक्षाव्रतों में दूसरा व्रत है। 'देश' का अर्थ है एक भाग और अवकाश' का अर्थ है उसमें अवस्थान करना = उसमें रहना। अर्थात् श्रावक ने पूर्व छठे व्रत रूप दिग्परिणामव्रत या अन्य सर्वव्रतों को लेते समय खुले रखे विशाल आरंभ के क्षेत्र का संक्षेप करके अल्प आरंभ वाले एक देश में - एक भाग में रहना, वह एक देश में अवकाश होने के कारण देशावकाशिक' व्रत कहलाता है।
जब तक बाह्य जगत से संबंध नहीं छूटता, तब तक साधक आत्मभाव में स्थिरतारूप आत्मिक आनंद प्राप्त नहीं कर सकता। इसी कारण आत्मिक आनंद प्राप्त करने की भावनावाला श्रावक जब भी समय और संयोग की अनुकूलता हो तब दुनिया भर में आवागमन करने हेतु भटकते हुए मन को वहाँ से हटाकर,
आत्मभाव में स्थिर करने के उद्देश्य से दिन, रात्री, प्रहर या उससे अधिक समय रूप काल-मर्यादा निश्चित करके, अपनी शय्या, घर या गली से अधिक क्षेत्र में न जाने-आने रूप क्षेत्र संकोच करता है तथा दुनिया भर में मिलने वाली भोगउपभोग की सामग्री से बचने के लिए सातवें व्रत में बताए हुए चौदह नियम के ग्रहण रूप द्रव्य-संकोच करता है; जिस क्षेत्र और जिस द्रव्य का त्याग किया है, उसके प्रति ममत्व का त्याग करने रूप भाव-संकोच करता है।
इस तरह दसवाँ व्रत पूर्व के व्रतों की द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की मर्यादाओं को और भी संकुचित करने स्वरूप है। अतः द्रव्य से निश्चित द्रव्यों के अलावा द्रव्य ग्रहण नहीं करना, क्षेत्र से निश्चित क्षेत्र से बाहर नहीं जाना, काल से निश्चित किए हुए समय तक एवं भाव से उन क्षेत्रादि में होती हिंसादि के पाप से अटकने के भावपूर्वक इस व्रत को स्वीकार किया जाता है।
1 देसावगासिअं पुण दिसिपरिमाणस्स निच्च संखेवो
अहवा सव्ववयाणं संखेवो पइदिणं जो उ॥ - योगशास्त्र प्र. ३-८४ वृत्तौ 'दिक्परिणाम', व्रत का संकोच ये ही देशावकाशिक व्रत है। दिक्परिमाण व्रत जीवन पर्यंत के लिए या एक वर्ष के लिए या चातुर्मास के लिए लिया जाता है; जब कि देशावकाशिक व्रत एक दिन, एक प्रहर या एक मुहूर्त इत्यादि परिमाण के लिए लिया जाता है, अथवा हर रोज़ सब व्रतों को संक्षेप करना वह ही देशावगाशिक व्रत है।