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आठवाँ व्रत गाथा-२५-२६
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स्नान, सुख-सुविधा के साधन, रूप-श्रृंगार के साधन आदि का आसक्ति के कारण निष्प्रयोजन उपयोग किया हो अथवा ज़रूरी हो तो भी जयणा रखे बिना उपयोग किया हो, तो ऐसे आचरण व्रत को मलिन करने वाले बनते हैं। दिनभर में ऐसा कोई भी आचरण हुआ हो तो उनसे मैं वापस लौटता हूँ एवं अप्रमत्तभाव से पुनः व्रत-मर्यादा में स्थिर होने का प्रयत्न करता हूँ।
इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि -
'यह शरीर अशुचि का घर है। स्नान से या श्रृंगार से यह कभी भी पवित्र नहीं हो सकता तो भी मैं शरीर की ममता से बंधा हुआ हूँ। इसलिए मुझे स्नानादि सब क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं। ये क्रियाएँ मर्यादित तरीके से भी हो सकती हैं तो भी शरीर और इन्द्रियों की आसक्ति के कारण मैं बहुत बार श्रावक जीवन की मर्यादा चूक गया हूँ। रूप और रस में आसक्त बनकर, वस्त्र और अलंकार में लुब्ध होकर, रस तथा गंध में भान गवाँकर मैंने निष्प्रयोजन बहुत पाप किए हैं। ये मैंने गलत किया है। वास्तव में ऐसे पापों को करनेवाले मुझे धिक्कार है।
'हे प्रभु ! इन सब पापों को याद करके उन सब पापों की मैं आलोचना करता हूँ। पुन: ऐसे पाप न हों इसके लिए सावधान बनता हूँ और जीवनभर के लिए अस्नानादि का व्रत धारण करने वाले श्रमण भगवंतों के चरणों में मस्तक झुकाकर उनके जैसा सत्त्व मुझ में प्रकट हो वैसी उनसे प्रार्थना करता हूँ।' अवतरणिका :
अब इस व्रत संबंधी पाँच अतिचार बताते हैं।
गाथा:
कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरि अहिगरण भोग-अइरित्ते। दंडम्मि अणट्ठाए, तइअम्मि गुणव्वए निंदे ।।२६।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : कन्दर्प कौत्कुच्ये मौखर्ये अधिकरण-भोगातिरिक्ते। अनर्थाय दण्डे, तृतीये गुणव्रते निन्दामि।।२६ ।।