SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठवाँ व्रत गाथा-२५ १८५ अपना रूप जिस प्रकार आसक्ति जगाता है वैसे ही अन्य का रूप भी मन को विकृत करता है, रागादि भावों का जनक है एवं आत्मा को कर्म से बाँधता है। अतः स्त्री, पुरुष, पक्षी, वृक्ष, महल, बंगला, ऐतिहासिक स्थल, बाँधकाम, नकाशी, बाग, बगीचा, गाड़ी या किसी भी प्रकार की सामग्री के रूप को किसी प्रयोजन के बिना देखना, रूप का विचार (चिंतन) या ध्यान करना, उसका वर्णन करना या अनावश्यक उसके लिये प्रयत्न करना, ये सब अनर्थदंड हैं। रस - स्वाद । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थ के कारणभूत शरीर को टिकाने के लिए शुद्ध एवं सात्त्विक आहार की ज़रूरत पड़ती है, परंतु ये आहार रसप्रचुर ही होना चाहिए, स्वादिष्ट ही होना चाहिए, ऐसा नियम नहीं है। तो भी रसना (जीभ की) की आसक्ति के कारण शरीर की भी परवाह किए बिना स्वादिष्ट भोजन या पेय पदार्थ भौतिक चाहत को उत्तेजित करने हेतु स्वयं लेना या दूसरों को देना 'अनर्थदंड' रूप है। आज के भोजन समारंभ, उनमें उपयोग होनेवाले मसाले, अनेक प्रकार की चटनियाँ, रायते, पेय पदार्थ, विविध प्रकार के अचार, अनेक प्रकार के नमकीन एवं होटल में बना खाना ये सब जीभ की लोलुपता का पोषण करते हैं तथा रागादि विकारों से आत्मा को दूषित करते हैं। इसलिए पापभीरू श्रावक को यह व्रत स्वीकार करके शीघ्र ही उनका त्याग कर देना चाहिए। गंधे - गंध। सुगंधित द्रव्य, पुष्प, सेन्ट, डिऑडरन्ट, रूम फ्रेशनर, अत्तर आदि में आसक्ति रखना एवं दूसरों को उसके प्रति आकर्षित करना भी अनर्थदंड है। जिनभक्ति महोत्सव आदि कोई विशेष प्रसंग को छोड़कर श्रावक को उनका त्याग कर देना चाहिए। इस तरह विलेवण शब्द तक स्पर्शेन्द्रिय के विषयों तथा पीछे के चारों शब्दों द्वारा बाकी के चार इन्द्रियों के विषय के उपभोग रूप प्रमादाचरण के अतिचार दर्शाए हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy