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वंदित्तु सूत्र
इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि, 'मैं संसार में हूँ। इसलिए ही ऐसी हिंसक चीजें मुझे रखनी पड़ती हैं। संयमी जीवन स्वीकार किया होता तो मुझे इनमें से एक भी चीज की आवश्यकता नहीं पड़ती; तो भी जब तक शक्ति हो तब तक ऐसी चीजों का उपयोग और संग्रह कम कर दूँ एवं रखनी पड़ें तो भी अन्य की नजर में अच्छे दिखने के लिए तो ऐसी चीज़ किसी को दूं ही नहीं । कभी दाक्षिण्यता आदि से ऐसी हिंसक चीजें किसी को दी हों या दिलवाई हों तो उन सब पापों को याद करके उनकी निन्दा करता हूँ और उन पापों से वापस लौटकर निष्पाप भाव में स्थिर होने का यत्न करता हूँ।' अवतरणिका:
अब अनर्थदंड के चौथे प्रकार प्रमादाचरण के विषय में जो कोई दोष लगा हो उसका प्रतिक्रमण करते हुए बताते हैं - गाथा :
ण्हाणुव्वट्टण-वन्नग-विलेवणे सद्द-रूव-रस-गंधे । वत्थासण-आभरणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ।।२५।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : स्नान-उद्वर्तन-वर्णक-विलेपने शब्द-रूप-रस-गन्धे ।
वस्त्र-आसन-आभरणे, दैवसिकं सर्वं प्रतिक्रामामि ।।२५।। गाथार्थ :
स्नान, उद्वर्तन, वर्णक (गाल वगैरह का कस्तूरी आदि से श्रृंगार करना) विलेपन, शब्द, रूप, रस, गंध, वस्त्र, आसन एवं आभूषण आदि सर्व के माध्यम से जो प्रमादाचरण किया हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ :
४. प्रमादाचरण
श्रावक जीवन, यह भी एक प्रकार का साधना जीवन है। इस जीवन की साधना करते हुए श्रावक को जिस प्रकार निरर्थक हिंसादि पाप ना हो जाएँ उसका