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आठवाँ व्रत गाथा-२४
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इन चार विभागों द्वारा यह व्रत मन, वचन एवं काया के संपूर्ण नियंत्रण रूप बन जाता है, क्योंकि इस व्रत में अपध्यान विरमण व्रत द्वारा मन का, पापोपदेश विरमण व्रत से वाणी का, हिंस्रप्रदान विरमण व्रत एवं प्रमादाचरण के विरमण द्वारा काया का नियंत्रण करना बताया गया है। अतः जिसका मन, वचन काया पर नियंत्रण है वही इस व्रत का निर्मल पालन कर सकता है।
१. अपध्यान' : अशुभ विषय में बनी हुई मन की एकाग्रता को अशुभ ध्यान या अपध्यान कहते हैं। यहाँ ध्यान शब्द का प्रयोग किया है, परंतु उससे अशुभ विचार, भावना या चिंतन का भी इसमें ही समावेश करना चाहिए। अशुभ ध्यान के शास्त्रों में दो प्रकार बताए हैं : (अ) आर्तध्यान और (ब) रौद्रध्यान। (अ) आर्तध्यान :
जिससे आत्मा को पीड़ा हो अथवा पीड़ित अवस्था में होनेवाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं। इसके चार प्रकार हैं -
(१) अनिष्ट-विषय-वियोग-चिंता : अनचाही वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के साथ संयोग होने पर, उससे छूटने की एवं फिर कभी ऐसी अनिष्ट वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति का संयोग न हो, ऐसी इच्छा से 'अनिष्ट-विषय-वियोग चिंता' नाम का आर्त्तध्यान उत्पन्न होता है।
(२) रोग वियोग चिंता : शरीर में किसी प्रकार का रोग न हो और हुआ हो तो कैसे और कब दूर हो ऐसी इच्छा से रोगवियोग-चिंता' नाम का आर्त्तध्यान प्रकट होता है। 4. अणवट्ठियं मणो जस्स, झायइ बहुआई अट्टमट्टाई। तं चिंतियं न लहइ, संचिणइ अ पावकम्माई।। वय-काय-विरहियाण वि, कम्माणं चित्तमेत्तविहियाणं। अइघोरं होइ फलं, तंदुलमच्छु व्व जीवाणं ।।
- धर्मसंग्रहवृत्तौ जिसका मन बहुत अट्टमट्ट (जैसा-तैसा) चिंतन करता है, वह जीव अपनी सोची हुई वस्तु प्राप्त नहीं कर सकता, एवं उलटा पापकर्म का बंध करता है।
वचन योग एवं काय योग से बोलने अथवा प्रवृत्ति किए बिना एकमात्र चित्त से दुर्ध्यान करने से भी बांधे हुए कर्मों के कारण जीवों को तदुलिया मत्स्य की तरह अति घोर फल भुगतने पड़ते
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