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वंदित्तु सूत्र
हो पाऊँ एवं आपके जैसा जीवन जीकर सर्वथा जड़ वस्तुओं के भोगोपभोग रहित अनाहारी पद प्राप्त कर सकूँ ।' अवतरणिका:
भोगोपभोग परिमाण व्रत में आहार संबंधी अतिचारों को बताकर, अब वाणिज्य संबंधी अतिचारों को इन दो गाथाओं द्वारा बताते हैं - गाथा :
इंगाली-वण-साडी-भाडी-फोडी सुवज्जए कम्मं । वाणिज्नं चेव दंत-लक्ख-रस-केस-विस-विसयं ।।२२।। एवं खु जंतपीलण (पिल्लण)-कम्मं निल्लंछणं च दव-दाणं।
सर-दह-तलाय-सोसं, असई-पोसं च वज्जिज्जा ।।२३।। अन्वय सहित संस्कृत छाया :
आङ्गारी-वन-शकटी-भाटी-स्फोटं कर्म सुवर्जयेत्। एव च दन्त-लाक्षा-रस-केश-विष-विषयम् वाणिज्यं ।।२२।। एवं खलु यंत्र-पीलनकर्म, निश्छिनं च दवदानम्।
सरो-हृद्-तडाग-शोषम्, असतीपोषं च वर्जयेत् ।।२३।। गाथार्थ :
१) अंगार कर्म, २) वन कर्म, ३) शकट कर्म, ४) भाटक कर्म, ५) स्फोटक कर्म : ये पाँच कर्म श्रावक को पूरी तरह से छोड़ देने चाहिए तथा १. दाँत, २. लाख, ३. रस, ४. केस, ५. विष संबंधी वाणिज्य (व्यापार) का एवं इसी तरीके से १-यंत्रपिलन कर्म, २-निल्छन कर्म, ३-दवदान कर्म, ४- सरोवरद्रह-तालाब आदि का शोषण कर्म तथा ५-असती पोषण कर्म, इन पाँच कर्मों का श्रावक को त्याग करना चाहिए। विशेषार्थ :
संसार में रहने वाले श्रावक को भोगोपभोग की विविध सामग्री प्राप्त करने के लिए धन की ज़रूरत पड़ती है एवं धन कमाने के लिए व्यापार करना पड़ता हैं।