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________________ सातवाँ व्रत गाथा - २० रखकर, अपनी शक्ति एवं संयोगों का विचार करके भोगोपभोग को नियंत्रण में लाने के लिए श्रावक यह व्रत स्वीकार करता है। १५७ व्रतधारी के आचार : भोगोपभोग परिमाण व्रत का स्वीकार कर व्रतधारी श्रावक, उत्सर्ग मार्ग से, जिसमें अपने निमित्त आरंभादि ( हिंसादि) न हुआ हो वैसा निर्दोष आहार उपभोग में लेते हैं। निर्दोष आहार न मिलने पर अल्प आरंभ से बना हुआ आहार उपयोग में लेते हैं और उसमें भी सचित्त का त्याग करते हैं, क्योंकि सचित्त जल या सचित्त आहार विकार उत्पन्न करते हैं और 'ये जीव हैं' ऐसी प्रतीति होने पर उसे खानेवाले के परिणाम क्रूर और हिंसक बनते हैं। अचित्त आहार मिलने का संयोग न होने पर और निर्धारित समय से ज़्यादा टिकने का अपना सामर्थ्य या धैर्य न हो तब अथवा अपनी इच्छा को रोकना मुमकिन न लगता हो तब, कभी सचित्त भोजन या पानी लेना पड़े, तो भी निश्चित प्रमाण से अधिक तो मुझे लेना ही नहीं है ऐसा नियम लेते हैं। सचित्त में भी शास्त्रकारों ने जिनका निषेध किया है वैसे मांस, मदिरा आदि ग्रहण नहीं करते। ऐसा होने पर भी राजकुलों, क्षत्रियकुलों आदि में जन्म लेने के कारण दृढ़ हुए कुसंस्कारों की मजबूरी से कभी सद्दंतर ऐसी चीज़ों का त्याग न हो सके, तो भी श्रावक मद्य-मांस आदि अभक्ष्य चीजों की खराबी का विचार कर उनका प्रमाण निश्चित करके मर्यादित तो करते ही हैं। मद्य और मांस जैसे श्रावकों के लिए वर्ज्य है, उसी प्रकार २२ प्रकार के अभक्ष्य' भी श्रावक के लिए वर्ज्य हैं : 2. जैन धर्म से भावित आत्मा नीचे के २२ अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करती है। १) वड का फल (Banyan's Fruits) २) पीपल का फल (Fig trees's fruit) ३) प्लक्षजाति के पीपल का टेटिआ ४) उंबरा का टा ५) काकोदुंबर का टेटा ६) हरेक प्रकार की शराब (All types of wine ) ये पांच उदुंबर जाति के फल हैं जिनमें छोटे-छोटे बहुत जंतु होते हैं। मादक है, बुद्धि को विकृत करने वाली है, तमोगुण की वृद्धि करती है एवं हिंसा का कारण है।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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