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सातवाँ व्रत गाथा-२०
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ईंधन' डालने से जैसे अग्नि शांत नहीं होती, वैसे ही इन्द्रियों के विषय द्वारा भोग की इच्छा कभी नाश नहीं होती, बल्कि उल्लसित हुई इच्छाएँ पुनः पुनः और अधिक उग्ररूप धारण करती है।
इसके अलावा जड़ पदार्थों का भोग किसी अन्य जीव के सुख को छीने बिना नहीं हो सकता। कोई भी भोग्य पदार्थ प्राप्त करने में पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति
आदि संख्यात से लेकर अनंत जीवों का संहार करना पड़ता हैं। रागादि विकृत भाव बिना ऐसे सुख को भोगने की इच्छा नहीं होती और भोगने से रागादि भावों की वृद्धि हुए बिना नहीं रहती। अत: यह भोग द्रव्य हिंसा तथा भाव हिंसा दोनों का कारण बनता हैं।
तदुपरांत ये भोग्य पदार्थ अल्पकाल के लिए भ्रामक, काल्पनिक सुख देकर, क्लिष्ट कर्म बंधवाकर भविष्य में दुर्गति का सर्जन करके आत्मा को चिरकालीन, वास्तविक सुख से दूर करते हैं। वर्तमान में भी भोग से श्रम, चिन्ता, विह्वलता आदि अनेक प्रकार के दु:खों की संभावना रहती हैं। संक्षिप्त में कहें तो विषयों के भोग से प्राप्त होनेवाला सुख पराधीन, औपाधिक, अल्पकालीन, अपूर्ण, दुःखमिश्रित, दु:खमय, दुःख फलक, दु:ख की परंपरा को बढ़ाने वाला एवं दुर्गति का बीज होता हैं।
भौतिक सुख की ऐसी दुःखकारिता का बोध होने पर भी अविरति के उदय के कारण श्रावक, साधु की तरह अभोगी नहीं रह सकता।
जिज्ञासा : श्रमण भगवंत भी आहार-वस्त्रादि का भोग तो करते ही हैं, तो उनको अभोगी कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर : संयमी भी जब तक शरीर एवं इन्द्रियों के साथ जुड़े हुए हैं तब तक उनको भी आहार, वस्त्र, पात्र आदि बाह्य चीजों की जरूरत पड़ती हैं। उनका उपभोग उनको भी करना पड़ता है, तब उनकी इन्द्रियाँ भी आहारादि जड़ पदार्थों के संपर्क में तो आती हैं, परंतु उस समय श्रुत से भावित श्रमण भगवंत, परमात्मा के वचनों का आलम्बन लेकर अत्यन्त सावधान बन जाते हैं। इष्ट या अनिष्ट 1. विषयैः क्षीयते कामो, नेन्धनैरिव पावकः ।
प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्तिर्भूय एवोपवर्द्धते।। ___ - अध्यात्मसार (अध्य.५ गाथा-४)