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पंचम व्रत गाथा-१८
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गाथा:
धण-धन्न-खित्त-वत्थू, रूप्प-सुवण्णे अ कुविअ-परिमाणे ।
दुपए चउप्पयम्मि य, पडिक्कमे देसि सव्वं ।।१८।। अन्वय सहित संस्कृत छाया :
धन-धान्य-क्षेत्र-वास्तु-रूप्य-सुवर्णे च कुप्य-परिमाणे। द्विपदे चतुष्पदे च दैवसिकं सर्वं प्रतिक्रामामि ।।१८ ।। गाथार्थ :
(१) धन, (२) धान्य, (३) क्षेत्र (भूमि), (४) वास्तु (घर-ग्राम वगैरह), (५) चांदी, (६) सुवर्ण, (७) कुप्य (कांसा वगैरह धातुएँ) (८) द्विपद (मनुष्य, पक्षी आदि) एवं (९) चतुष्पद (जानवर) ऐसे नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह के परिमाण के विषय में दिनभर में जो अतिचार लगे हों उन सबका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ :
नौ प्रकार के परिग्रह के परिमाण का नियम करके उनमें बंधन द्वारा, दो या अधिक चीज़ों को जुटाने द्वारा, उपहार द्वारा या गर्भादि' द्वारा प्रमाण से अधिक रखने की भावना हो तो वह अतिचार हैं। साधारणतया ये अतिचार पाँच प्रकार के हैं :
धण-धन्न - धन-धान्य प्रमाणातिक्रम । धन-धान्य के प्रमाण का अतिक्रमण करना अर्थात् उनके प्रमाण की मर्यादा का पालन न करना, वह पहला अतिचार है। 1. बन्धनाद्योजनादानाद् गर्भतो भावतस्तथा। कृतेच्छापरिमाणस्य न्याय्या: पञ्चापि न हमी।।४८॥
- धर्मसङ्ग्रह 2. धन चार प्रकार का होता है : १) गणिम - गिने जा सके जैसे नगद रुपया, सुपारी आदि,
२) धरिम - तोलकर ली जाए जैसे गुड़, शक्कर आदि, ३) मेय - माप कर ली जाए, जैसे घी, कपड़ा वगैरह, ४) परिच्छेद्य - जो वस्तु कसकर, छेदकर ली जाए, जैसे रत्न, सुवर्ण वगैरह। कल्पसूत्र की टीका इत्यादि शास्त्रों में चावल गेहूँ, आदि, मग, मठ आदि २४ प्रकार के धान्य बताए हैं।