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वंदित्तु सूत्र
विशेषार्थ :
चउत्थे अणुव्वयम्मी, निचं परदार- गमण - विरईओ चौथे अणुव्रत के विषय में सदा के लिए परस्त्रीगमन की विरति ( का उल्लंघन करने) से । सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों में चतुर्थ व्रत 'स्थूल मैथुन विरमण व्रत' है । जैसे चोरी स्व- पर पीडाकारक होने से अहिंसक भाव स्वरूप आत्मा के मूल स्वभाव को नष्ट करती है, उसी तरह मैथुन क्रिया भी रागादि भावों को उत्पन्न करवा कर स्व भावप्राण का तथा भोग की क्रिया द्वारा असंख्य त्रस आदि जीवों की हिंसा द्वारा पर प्राणों का नाश करके, हिंसा का प्रबल कारण बनती है। इसलिए यदि श्रावक अहिंसक भाव स्वरूप अपना मूल स्वभाव प्राप्त करना चाहता हो, तो उसे अब्रह्म का याने कि मैथुन का अवश्य त्याग करना चाहिए।
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चतुर्थ व्रत का स्वरूप :
सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों में चौथा व्रत स्थूल मैथुन विरमण व्रत' है। स्त्री पुरुष युगल की कामक्रीड़ा मैथुन' क्रिया है । वेदमोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उभरती प्रबल कामवृत्ति के संतोष हेतु एवं उससे उत्पन्न अन्य अनर्थों से बचने के लिए अपनी पत्नी में संतोष मानकर - अर्थात् अपनी पत्नी में भी मर्यादा बाँधकर - अन्य सब स्त्रियों के संसर्ग का त्याग करना स्वदारा संतोष - पर स्त्री गमन विरमण व्रत है ।
ब्रह्मचर्य का स्वरूप :
निश्चयनय से परभाव में रमण करना अब्रह्म है और (मन एवं इन्द्रियों के विकारों से परे होकर) स्वभाव में रमण करना ब्रह्मचर्य है । इसलिए ब्रह्मचर्य की व्याख्या करते हुए कहा है कि ब्रह्मणि चर्यते इति ब्रह्मचर्यम् । व्यवहारनय इतनी सूक्ष्मता से पदार्थ का विश्लेषण नहीं करता, इसलिए वह स्त्री-पुरुष के युगल जो काम क्रीड़ा करते हैं उसे अब्रह्म कहता है एवं उस क्रिया के त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
1. पुंस्त्रीरुपं मिथुनम् । मिथुनस्य भावः कर्म्म वा मैथुनम् । तदपि द्विविधं स्थूलं सूक्ष्मं च । तत्र भेदद्वये इदं सूक्ष्मं यदुत - इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां मनोविकारजनितं किञ्चिद् विकृतिमात्रमाविर्भवति, न पुनर्वाक्कायिकी कुप्रवृत्तिः, इदं च प्राय: सर्वथाऽब्रह्मवर्जकः । स्थूलं तु दम्पत्योः परस्परं सर्वाङ्गसम्भोगः ।। ४२० ।। - हितोपदेश