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वंदित्तु सूत्र
इन दोनों गाथाओं का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि -
“'सत्य' आत्मा का स्वभाव है, तो भी मृषावाद का सर्वथा त्याग करके इस व्रत का पूर्ण पालन करना तो मेरे लिए संभव नहीं है। ऐसा होते हुए भी भव समुद्र से पार उतरने के लिए डूबता व्यक्ति जैसे तरापा या फली का सहारा लेता है, वैसे ही 'बड़ा झूठ नहीं बोलना', ऐसा व्रत मैंने स्वीकार किया है। इस व्रत को स्वीकार करके उसका विशुद्ध पालन करने के लिए मैंने किंचित् प्रयत्न किया है। ऐसा होते हुए भी अधीर स्वभाव से, वाचालता से अथवा कषाय की पराधीनता से दिनभर में व्रत मर्यादा का विस्मरण होने से या व्रत की मर्यादा यथोचित न समझने से जो कोई वाणी का अनुचित व्यवहार हुआ है, वह निश्चय ही गलत हुआ हैं। इससे मैंने मेरी आत्मा को कर्म एवं कुसंस्कारों से बाँधी है। ऐसी भूल पुनः न हो। इसके लिए सब भूलों को याद करके आत्मसाक्षी से उनकी निन्दा करता हूँ। गुरू समक्ष उनकी गर्दा करता हूँ और असत्य के इस पाप से मेरी आत्मा को वापस मोड़ता हूँ। पुन: ऐसा न हो इसके प्रति सावधान रहता हूँ।
धन्य है हरिश्चन्द्र एवं तारामती जैसे श्रावक-श्राविका को! जिन्होंने चंडाल के घर पानी भरने जैसे निम्न कोटि के कार्य को स्वीकार किया परंतु असत्य वचन तो न ही बोला। धन्य है सुदर्शन श्रेष्ठी को! जो सूली पर चढ़ने को तैयार हुए परंतु परपीडाकारी सत्यवचन भी नहीं ही बोला...। ऐसे महापुरुषों के चरणों में मैं वंदन करता हूँ एवं ऐसा सत्त्व मुझमें भी प्रकटे ऐसी प्रार्थना करके पुनः व्रत में स्थिर होता हूँ।" चित्तवृत्ति का संस्करण :
दृढ़ता से व्रत का पालन करने के लिए इस गाथा में बताए हुए अतिचारों के प्रति सावधानी रखने के उपरांत भी पुनः झूठ बोलने में ना आए इसलिए श्रावक को निम्न विषयों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। • अनावश्यक कुछ भी ना बोले और यदि बोलना पड़े तो भी बहुत सोच करके
गंभीरतापूर्वक कम से कम बोले। • झूठ तो बोलना ही नहीं है, परंतु सत्य भी यदि स्व-पर अहितकारक हो तो उसे
भी नहीं बोलना।