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द्वितीय व्रत गाथा-१२
मंतव्य देने से पहेले या किसी बात का निरूपण करने से पहले उस विषय की तमाम आवश्यक जानकारी लेनी चाहिए, गंभीर चिंतन करना चाहिए, उसके बाद जो जैसा है वैसा यथार्थ कहना चाहिए। बिना सोचे-समझे किसी भी वस्तु विषयक या व्यक्ति विषयक ‘यह ठीक है या खराब है' ऐसा किसी भी प्रकार का अभिप्राय नहीं देना चाहिए, क्योंकि बिना सोचे, एकाएक अभिप्राय देने से स्वीकार किया हुआ व्रत दूषित होने की संभावना है। यह व्रत विषयक प्रथम अतिचार है।
रहस् - रहस्य अभ्याख्यान, किसी की गुप्त बात प्रकट करना। रहस् अर्थात् एकांत। एकांत में या गुप्त रीति से किसी के साथ कोई बात हुई हो, या किसी की एकांत में हुई बात सुनी हो, तो उसको कभी भी प्रकट नहीं करना चाहिए, अथवा किसी को गुप्त बात करते हुए देखने पर ये ज़रूर इसके बारे में ही बात करते होंगे या कोई षड्यंत्र रचते होंगे,' ऐसा अनुमान करके एक दूसरे को कहना, यह दूसरे व्रत का दूसरा अतिचार हैं। आँखों से देखा हुआ और कान से सुना हुआ भी कभी गलत हो सकता है, तो अनुमान से निश्चय किया गया सत्य ही है ऐसा कैसे कह सकते हैं ? इस कारण झूठ नहीं बोलने की प्रतिज्ञा वाले श्रावक बिना सोचे ऐसी एकांत में हुई बात का अनुमान करके कभी नहीं बोलते ओर यदि बोलें तो वह अतिचार हैं।
सदारे - स्वदारामंत्रभेद, अपनी पत्नी की गुप्त बात प्रकट करना।
अत्यंत प्रीति के कारण पत्नी ने अपने पति से या पति ने अपनी पत्नी से अपने जीवन की अत्यंत गुप्त बात कही हो तो दोनों को परस्पर इस बात को गुप्त ही रखनी चाहिए, सबके सामने उस बात को कभी भी प्रकट नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार अपने मित्र से की हुई गुप्त बात को भी सबके सामने प्रकट नहीं करनी चाहिए। गुप्त बात को प्रकट करने में तीसरा अतिचार लगता है।
आपस में प्रेम और विश्वास जब तक टिका हुआ है, तब तक ऐसा होने की संभावना कम होती है, परंतु संसार के स्नेह-संबंध स्वार्थी होते हैं। जब परस्पर एक-दूसरे की स्वार्थपूर्ति नहीं होती तब यह संबंध टूटते हैं और दोनों के बीच अप्रीति, अविश्वास और शंका उत्पन्न होती हैं। फिर तो स्नेह और राग का स्थान रोष ले लेता है । एसे समय में कषायाधीन श्रावक में भी भूतकाल में की हुई गुप्त