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'पंचवस्तु' की इस व्रतशुद्धि की बात पढ़कर, वर्षों की मेरी उलझन का अंत होने पर मेरा मन नाच उठा। आत्मा को कोई नवीन ही आनंद की अनुभूति हुई एवं जैन शासन पर हृदय न्यौछावर हो गया। जैन शासन की कैसी महानता ! उसमें आत्म कल्याणार्थ व्रत-नियम बतलाए, इतना ही नहीं, परंतु छद्यस्थता के कारण सतत दोष से मलिन बनते हुए व्रतों को शुद्ध करने के लिए प्रतिक्रमण जैसा व्रतशुद्धि का मार्ग भी बताया है। सच में मार्गदाता अरिहंत की यही तो करूणा है । इस करुणा के स्रोत से ही ‘वंदित्तु० सूत्र' का प्रकटीकरण हुआ होगा ।
परम कृपालु परमात्मा की वाणी को गणधर भगवंतों ने सूत्रबद्ध किया । श्रुतधरों की उज्ज्वल परंपरा द्वारा यह सूत्र तो हमें प्राप्त हुआ, परंतु उसके एक-एक शब्द के पीछे छिपे हुए गर्भित भाव तक पहुँचने का काम सहज नहीं था। इस सूत्र के ऊपर संस्कृत भाषा में रचे गए अनेक टीका ग्रंथों के सहारे खास तोर से पू. रत्नशेखरसूरीश्वरजी की अर्थदीपिका ग्रन्थ से इन भावों को समझकर अनेक जिज्ञासुओं को उन भावों तक पहुँचाने के लिए इस पुस्तक के माध्यम से मैंने यथाशक्ति प्रयत्न किया है। ऐसा करने में मुझे नामी - अनामी अनेक व्यक्तियों का सहयोग मिला है। इस अवसर पर उन सबके उपकारों की स्मृति ताजी हुई है।
सर्वप्रथम उपकार तो गणधर भगवंतों का है कि उन्होने अपने जैसे अल्पमति जीवों के लिए गूढ़ रहस्यों से भरे सूत्रों की रचना की, उसके बाद उपकार है पूर्वाचार्यों का, जिन्होंने इन सूत्रों के रहस्यों तक पहुँचने के लिए उनके ऊपर अनेक टीका ग्रंथ बनाए। ये हुई परोक्ष उपकार की बात, प्रत्यक्ष उपकार में सर्वप्रथम उपकार है धर्मपिता तुल्य (संसारी पक्ष में मेरे मामा ) वर्धमान तपोनिधि आचार्य देवेश श्रीमद् विजय गुणयशसूरीश्वरजी महाराज का जिन्होंने मुझे धर्म मार्ग पर आरूढ़ किया एवं व्याख्यान वाचस्पति तपागच्छाधिराज भावाचार्य भगवंत प. पू. रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज से मेरी पहचान करवाई। उनके सुयोग्य सान्निध्य से मेरे जीवन में वैराग्य के अंकूर फूटे एवं संसार को त्याग कर मैं संयम के लिए दृढ़ बनी। यहाँ तक पहुँचाने वाले उन महापुरुषों के उपकार को तो मैं कभी भी भूल नहीं सकूँगी ।
पत्थर पर टाँका मारकर शिल्पी जैसे अनेक शिल्प तैयार करता है, वैसे ही मेरे जीवन को घड़ने का कार्य मेरे परमोपकारी गुरुदेव शताधिक शिष्याओं का योगक्षेम
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