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भूमिका सत्त्वहीनता का प्रदर्शन है । सत्त्वहीन पुरुष ही संकट में अपने कर्तव्य का विचार छोड़कर दूसरों को अपराधी मानता है । ऐसी अधीरता या सत्त्वहीनता उचित प्रवृत्ति करनेवाले जीवों में नहीं होती ।
४. शक्तिपूर्वक का त्याग :
शक्ति अनुसार त्याग किए बिना औचित्य युक्त जीवन जीना शक्य नहीं बनता, इसीलिए औचित्य से युक्त जीव धर्मक्रिया में शक्ति छिपाए बिना - प्रामाणिकता से अपनी शक्ति का विचार करके धर्मकार्य करता है, वैसे ही शक्ति से अधिक कोई कार्य नहीं करता और शक्ति से कम भी कार्य नहीं करता ।
५. लब्धलक्ष्यता :
सांसारिक क्षेत्र में सर्वत्र दिखाई देता है कि, जिस व्यक्ति का लक्ष्य निश्चित होता है, वह अपने लक्ष्य के अनुरूप उचित क्रिया करता है, वैसे ही जिस साधक का मोक्षप्राप्ति का याने शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट करने का लक्ष्य निश्चित होता है, वह साधक सर्वत्र अपने लक्ष्य के अनुरूप कषाय को स्पर्श किए बिना उचित प्रवृत्ति करता है, इसलिए लब्धलक्ष्य व्यक्ति चैत्यवंदन का अधिकारी कहलाता है ।
शुद्ध चैत्यवंदन करने की इच्छावाले प्रत्येक साधक को यह पंद्रह गुण प्राप्त करने के लिए अवश्य प्रयत्न करना चाहिए । चैत्यवंदन के लिए योग्य चित्त :
चैत्यवंदन के प्रारंभ से पहले चैत्यवंदन क्रिया के योग्य मानसिक स्थिति का निर्माण करने के लिए साधक सोचता है,
“अरिहंत की वंदना स्वरूप यह चैत्यवंदन चिंतामणिरत्न और कल्पवृक्ष से भी अधिक फलदायक है, क्योंकि चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष तो परिमित और अल्पकालीन सुख ही दे सकते हैं, जबकि यह चैत्यवंदन तो अपरिमित और अनंतकाल रहनेवाला सुख देता है, इसीलिए उसके आगे इन दोनों की कोई किंमत नहीं है और प्रमात्मा