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सूत्र संवेदना - २ चत्तारि अट्ठ दस दो य, वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं ।
परमट्ठ-निटिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।।५।। पद : २० संपदा : २० अक्षर : १७६ अन्वय सहित संस्कृत छाया और शब्दार्थ : सिद्धाणं बुद्धाणं, पार-गयाणं परंपर-गयाणं । सिद्धेभ्यः बुद्धेभ्यः, पार-गतेभ्यः परम्पर-गतेभ्यः । सिद्ध हुए, केवलज्ञान पाए हुए, संसार के पार को प्राप्त करनेवाले, परंपरा से मोक्ष को प्राप्त किए हुए । लोअग्गमुवगयाणं, सव्व सिद्धाणं सया नमो ।।१।। लोकाग्रं उपगतेभ्यः, सर्व-सिद्धेभ्यः सदा नमः ।।१।।
लोक के अग्रभाग को प्राप्त किए हुए सभी सिद्ध भगवंतों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।।१।।
जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति । यः देवानाम् अपि देवः, यं देवाः प्राञ्जलयः नमस्यन्ति । जो देवों के भी देव हैं, जिन्हें देव भी दो हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। देवदेव-महिअंतं महावीरं सिरसा वंदे ।।२।। देवदेव-महितं तं महावीरं शिरसा वन्दे ।।२।।
(जो) देवों के देव इन्द्र से पूजे गए हैं, उन महावीर स्वामी भगवान को मैं मस्तक झुकाकर वंदन करता हूँ ।।२।। जिणवर-वसहस्स वद्धमाणस्स इक्को वि नमुक्कारो । जिनवर-वृषभाय वर्द्धमानाय एकोऽपि नमस्कारः । जिनों में वृषभ तुल्य वर्धमानस्वामी को किया गया एक भी नमस्कार। नरं व नारिं वा' संसार-सागराओ तारेइ ।।३।। नरं वा नारी बा संसार-सागरात् तारयति ।।३।। पुरुष अथवा स्त्री को संसार-सागर से पार करवाता है ।।३।।