________________
सूत्र संवेदना - २
चित्त अन्य प्रवृत्ति में नहीं जाता और श्रुत में प्रवृत्ति करने में उन्हें खेद भी नहीं होता ।
२९६
यहाँ यह भी याद रखना जरूरी है कि, जो श्रुताध्ययनविरति के मार्ग पर आगे न बढ़ाए, संवेग और निर्वेद की वृद्धि द्वारा संयममार्ग में स्थिर न करे, वह कथित श्रुताध्ययन भी सप्रमाद है । अतः चारित्र में दृढ़ता लाने या संयम के परिणाम को बनाने के उद्देश्य से रहित जो निरंतर शास्त्र में श्रम करते हैं, शास्त्र को कंठस्थ करने के लिए कंठ सुखा देते हैं, शास्त्र को समझने के लिए बुद्धि का तीव्र उपयोग करते हैं, लेकिन वह ज्ञान पढ़कर चारित्र मार्ग में दृढ़ उपयोग वाले नहीं होते । समिति - गुप्ति के परिणाम में स्थैर्य प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते । मात्र बाह्य से ही क्रियाएँ करते हैं; उस क्रिया से भाव प्रकट करना उनका उद्देश्य नहीं होता उनको शास्त्रकारों ने पढ़ 'बावजूद और क्रिया करने के बावजूद भी प्रमादी ही कहा है। अतः अप्रमत्त भाव लाने के लिए खूब सजग रहने की ज़रूरत है । शास्त्रों को पढ़कर चारित्र की क्रियाएँ संमूर्च्छिम की तरह नहीं करनी चाहिए; परन्तु शास्त्र के एक-एक शब्द किस भाव को बतानेवाले हैं ? वह भाव मुझमें आया या नहीं ? उन भावों को लाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ? यह सब सोचकर शास्त्रानुसार क्रिया करनी चाहिए। ऐसी अप्रमत्त भाव की क्रिया शास्त्राभ्यासपूर्वक हो, तो ही ज्ञान का फल विरति और विरति का फल मोक्ष मिल सकता है, अन्यथा नहीं ।
यह गाथा बोलते हुए सोचना चाहिए
“ श्रुतज्ञान की शक्ति अचिंत्य है । चिंतामणि रत्न या कल्पवृक्ष भी जो कार्य नहीं, कर सकते, वह कार्य श्रुतज्ञान करता है । श्रुतज्ञान मेरे अज्ञानार्दि दोषों को निकालने के लिए, जन्मो जन्म के दुःखों को दूर करने के लिए और मुझे मोक्ष तक पहुँचाने के लिए समर्थ है । मेरा सद्भाग्य है कि देव-देवेन्द्र भी जिसकी भक्ति करते हैं, उस श्रुतज्ञान को बुद्धि द्वारा स्पर्श करने का अवसर मुझे मिला