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________________ कल्लाण-कंदं सूत्र २४१ २४१ निर्वाण-मार्गे वर-यान-कल्पं, प्रणाशित-अशेष-कुवादि-दपः । बुधानां शरणं, त्रिजगत्-प्रधानं जिनानां मतं नित्यं नमामि ।।३।। मोक्षमार्ग में श्रेष्ठ वाहन तुल्य, समस्त कुवादियों के अभिमान का विनाश करनेवाले, पंडित पुरुषों के शरण स्थल (और) तीन जगत् में सर्वोत्तम श्री जिनेश्वर भगवंत के मत को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।।३।। कुंदिंदु-गोक्खीर-तुसार-वण्णा, सरोज-हत्था क्रमले निसन्ना, पुत्थय-वग्ग-हत्था, पसत्था सा वाएसिरी अम्ह सया सुहाय (भवउ) ।।४।। कुन्देन्दु-गोक्षीर-तुषार-वर्णा, सरोजहस्ता, कमले निषण्णा, पुस्तक-वर्गहस्ता, प्रशस्ता सा वागीश्वरी नः सदा सुखाय (भवतु) ।।४।। मोगरे के पुष्प, चंद्रमा, गाय के दूध और बर्फ जैसी श्वेत वर्णवाली, हाथ में कमल को धारण करनेवाली, कमल के ऊपर आरूढ, हाथ में पुस्तक के समूह को धारण करनेवाली (तथा जगत् में) प्रशंसनीय सरस्वती देवी सदा हमारे सुख के लिए हों ।।४।। विशेषार्थ : कल्लाणकंदं पढमं जिणिंदं संतिं तओ नेमिजिणं मुणिंदं : कल्याण के मूल रूप प्रथम जिन को, जिनेश्वरों में इन्द्र के समान शांतिनाथ भगवान को और मुनियों में इन्द्र के समान नेमिनाथ भगवान को (मैं भक्ति से वंदन करता हूँ ।) कल्लाण कंदं पढमं : कल्याण' अर्थात् सुख और कंद अर्थात् मूल । संपूर्ण सुख मोक्ष में प्राप्त होता है अर्थात् मोक्ष ही पूर्ण कल्याण रूप है और मोक्ष का सुख जब तक प्राप्त न हो, तब तक पुण्यानुबंधी पुण्य के उदय से देव और मनुष्यभव में जो भौतिक या आध्यात्मिक सुख की सामग्री प्राप्त होती है, वह भी अपेक्षा से कल्याण रूप है । इन दोनों प्रकार के कल्याण की प्राप्ति धर्म से ही होती 1. 'कल्याणं'-कल्यो-मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याणम् ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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