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________________ कल्लाण-कंदं सूत्र २३९ भगवान की तरह उनके वचन रूप श्रुतज्ञान भी भव्य जीवों को संसार सागर से तैराने में प्रबल निमित्त हैं । अतः चौबीस जिन की स्तुति करने के बाद श्रुतज्ञान के प्रति भक्ति की वृद्धि के लिए श्रुतस्तव (पुक्खरवरदी सूत्र) बोलकर, कायोत्सर्ग करके श्रुतज्ञान के महत्त्व को बतानेवाली तीसरी स्तुति (थुई) बोली जाती है । सन्मार्ग में प्रवर्तित व्यक्ति को विघ्न आने की बहुत संभावनाएँ हैं । जैन शासन के प्रति भक्तिवाले देव-देवियाँ संघ के भक्तों की वैयावच्च करने में तथा शासन के ऊपर आनेवाले विघ्नों को दूर करने में उद्यमशील होते हैं। इसीलिए उनके स्मरण द्वारा उन्हें विघ्न निवारण आदि में सहायता करने के लिए शासन-सेवक देव-देवी की (यक्ष-यक्षिणी की) स्तवना के रूप में चौथी स्तुति बोली जाती हैं । इस प्रकार यह सूत्र चार विभाग में बाँटा गया है । __ यह स्तुति सुबह के प्रतिक्रमण में हमेशा तथा दैवसिक प्रतिक्रमण में मांगलिक प्रतिक्रमण के वक्त बोली जाती है । मूल सूत्र : कल्लाण-कंदं-पढमं जिणिंद, संतिं तओ नेमिजिणं मुणिंदं । पासं पयासं सुगुणिक्क-ठाणं, भत्तीइ वंदे सिरिवद्धमाणं ।।१।। अपार-संसार-समुद्द-पारं, पत्ता सिवं दितु सुइक्क-सारं । सव्वे जिणिंदा सुर-विंद-वंदा, कल्लाण-वल्लीण विसाल-कंदा ।।२।। निव्वाण-मग्गे वर-जाण-कप्पं, पणासियासेस-कुवाइ-दप्पं ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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