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सूत्र संवेदना - २
निंदा होने लगी और पू. भद्रबाहुजी की कीर्ति और भी फैलने लगी। इससे आवेश में आकर वराहमिहिर ने घोर तपश्चर्या का प्रारम्भ किया। नियाणा करके वह व्यंतर जाति में उत्पन्न हुआ एवं छल ढूंढकर जैन संघ पर अत्यंत उपद्रव करने लगा। इस उपद्रव का निवारण, उवसग्गहरं स्तोत्र की रचना का निमित्त बना।
इस स्तोत्र की गाथा के संबंध में बहुत मतभेद है, परन्तु हाल में इस स्तोत्र की पाँच गाथाएँ प्रचलित हैं। उसमें प्रथम गाथा में अलग-अलग विशेषणों द्वारा पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना-वंदना की गई है। दूसरी गाथा में उनके नाम से अधिष्ठित ‘विषहर फुलिंग' मंत्र के पाठ से कैसे-कैसे फल प्राप्त होते हैं, वह बताया गया है। तीसरी गाथा में मंत्र की बात तो दूर रही, पार्श्वनाथ भगवान को किया हुआ प्रणाम भी कितना विशिष्ट फल देता है, उसका वर्णन है। चौथी गाथा में उनके प्रभाव को प्राप्त हुआ सम्यग्दर्शन गुण कितना विशिष्ट है, उसका कथन है और पाँचवीं गाथा में पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना करके अंत में हरेक भव में बोधि की प्राप्ति हो, वैसी प्रार्थना की है। मूल सूत्र :
उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म-घण-मुक्कं । विसहर-विस-निवासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ।।१।। विसहर-फुलिंग-मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ । तस्स गह-रोग-मारी-दुट्ठजरा जंति उवसामं ।।२।। चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नरतिरिएK वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोगधे ।।३।। तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणि-कप्पपायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ।।४।।