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सूत्र संवेदना - २
यह श्रमणधर्म कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होनेवाला आत्मा का शुद्ध परिणाम है, जो किसी भी जीव को पीड़ा नहीं देने के परिणाम स्वरूप है । इसलिए शास्त्र में इसे 'सकलसत्त्वहिताशयवृत्ति' (जीव मात्र का हित करने की भावना) स्वरुप अमृत कहा है । छोटे से छोटे जीव को भी पीड़ा न हो, उसकी आत्मा का अहित न हो, इसकी संपूर्ण सावधानी साधु जीवन में हमेशा रखी जाती है । इसीलिए ऐसा जीवन साधक का हित करके अमरण अवस्था स्वरूप मोक्ष का साक्षात् कारण बनता है । अमरण अवस्था की प्राप्ति अमृत से होती है, अतः साधुता के भाव का परिचय देते हुए उसे अमृत तुल्य कहा गया है ।
54साधुधर्म की तीव्र इच्छा होने पर भी जब तक यह स्वीकार करने की शक्ति न आए, तब तक उस शक्ति को प्रकट करने के लिए अणुव्रत से (छोटे से छोटे व्रत से) लेकर श्रावक की ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा तक की सर्व साधना श्रावकधर्म5 है अर्थात् ये श्रावकधर्म भी साधुधर्म के स्वीकार की भावनापूर्वक छोटे-छोटे व्रतों में किए हुए यत्न से प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं।
यद्यपि ऐसे श्रेष्ठ कोटि के धर्म की प्राप्ति में मनुष्यजन्म, सद्गुरु का संयोग, स्वयोग्यता आदि कारण तो जरूर कार्य करते हैं, लेकिन उन सब कारणों में महत्त्वपूर्ण कारण है, धर्मश्रवण की योग्यता । धर्मश्रवण की योग्यता के बिना मात्र गुरू-संयोगादि चारित्रधर्म तक नहीं पहुंचा सकते एवं यह धर्मश्रवण की योग्यता भवनिर्वेद में से प्रकट हुए भगवान के बहुमान से प्राप्त होती है, इसलिए भगवान चारित्रधर्म के दाता कहलाते हैं ।
यह पद बोलते समय चारित्रधर्म के दाता परमात्मा का स्मरण करके, उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ भाव प्रकट करके नमस्कार करते हुए प्रार्थना करें कि - 54 साधुधर्माः पुनः सामायिकादिगतविशुद्धक्रियाभिव्यङ्ग्यः सकलसत्त्वहिताशयामृतलक्षणः स्वपरिणामीएव ।।
- ललित विस्तरा 55. श्रावकधर्मोऽणुव्रताधुपासकप्रतिमागतक्रियासाध्यः साधुधर्माभिलाषातिशयरूपः आत्मपरिणामः ।
- ललित विस्तरा