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संवेदना सूत्र
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बाहर निकालता हूँ' यह सुनकर उस मुसाफिर को अत्यंत राहत का अनुभव होता है, उसका डर कम होता है, उसे आश्वासन मिलता है, 'हाश ! अब चिंता की कोई बात नहीं है । इस पुरुष के सहारे मैं अब यहाँ से छूट सकूँगा । निर्भयता से जंगल को पार कर सकूँगा ।'
भौतिक जगत् की तीव्र आसक्ति के कारण संसारी जीव भी कषायों और सात प्रकार के भयों से सतत भयभीत रहता है । जब वह अभय भाव में रहे हुए अचिंत्य शक्तिवाले, परहित में निरंतर रत रहनेवाले और सदा महानंद से युक्त परमात्मा का दर्शन करता है, बहुमानपूर्वक उनके वचनों पर विचार करता है, तब उनके वचनों के बल से उसका मन थोड़ा स्वस्थ होता है । उसे लगता है कि, "मैं भी कषायों से मुक्त हो सकूँगा " परिणाम स्वरूप उसका भय कम होता है एवं उसे आंशिक धृति की प्राप्ति होती है । उसे धृतिपूर्वक भगवान के वचनानुसार प्रवृत्ति करते हुए भयावह संसार से मुक्ति प्राप्त करने का मार्ग मिलता है ।
इस भूमिका में भवनिर्वेद और भगवान के प्रति बहुमान के साथ-साथ जीव में अनादिकाल से जो तत्त्व का द्वेष था, उसका अंत होता है और तत्त्व का अद्वेष प्रकट होता है, वह तत्त्वमार्ग के लिए प्रयत्नशील बनता है, उसमें तत्त्व प्राप्ति की इच्छा प्रकट होती है, फिर भी इस भूमिका में उसका तत्त्वविषयक बोध अति मंद होता है । इस बोध को योग की प्रथम दृष्टि 'मित्रादृष्टि'35 प्रायोग्य बोध कहते हैं । यहाँ तत्त्व का अद्वेष गुण प्रकट 35. योगदृष्टि : मोक्षमार्ग के साथ जोडनेवाली मन-वचन काया की प्रवृत्ति को योगमार्ग कहते हैं । ऐसे योगमार्ग का दर्शन जिससे होता है, वैसे सम्यग्बोध को योगदृष्टि कहते हैं । योग दृष्टि का प्रारंभ होते ही आत्मा का लगाव भौतिक क्षेत्र से पीछे हटकर आध्यात्मिक क्षेत्र की तरफ़ होता है ।
मित्रादृष्टि : आध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका को मित्रादृष्टि कहते हैं । इस दृष्टिवाले जीव का योगमार्ग विषयक बोध अति मंद होता है, फिर भी इस बोध से उसे भव का वैराग्य प्रकट होता है, भगवान के प्रति बहुमान का परिणाम प्रकट होता है एवं आत्महित की चिंता का प्रारंभ होता है । आत्महित की चिंतारूप सच्चा मित्र मिलने पर जीव कुछ निर्भय बनता है । जीव को अभयभाव देनेवाले बोधरूप मित्र की प्राप्ति आदि होती है । इसलिए उसे मित्रादृष्टि कहते हैं ।