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मुहपत्ति पडिलेहन की विधि
२-३-४. सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिध्यात्व मोहनीय परिहरु :
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मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बुद्धि में भ्रम पैदा करता है । इस कर्म के कारण ही संसार की असारता को बतानेवाले तथा विषयों के विपाकों का दर्शन करवाने वाले भगवान के वचनों के उपर श्रद्धा नहीं होती । इस कारण से ही संसार को सार मानते हुए विषयों में आसक्त बने जीव अनंतकाल से दुःख की परंपरा पाते हैं । सम्यक्त्व मोहनीय तथा मिश्र मोहनीय कर्म भी शुद्ध या अर्धशुद्ध हुए मिथ्यात्व मोहनीय कर्मों के ही दलिक हैं। उसका कार्य भी तत्त्वमार्ग में तथा तत्त्वभूत सूत्र - अर्थ में बाधक बनने का ही है । इसलिए साधना के लिए उद्यत बना साधक सर्वप्रथम ऐसा बोलने के द्वारा इन तीन प्रकृतियों को त्यागने का संकल्प करता है ।
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यह दर्शन मोहनीय कर्म भी तीव्र कोटि के राग पर निभता है । इसलिए प्रतिलेखन करता हुआ साधक अब कहता है कि,
५-६-७. कामराग-स्नेहराग वृष्टिराग परिहरु :
कामराग अर्थात् पाँचों इन्द्रियों के विषयों के प्रति राग, स्नेहराग याने सुख के रिश्ते से बंधे हुए स्वजनों का राग एवं दृष्टिराग अर्थात् दर्शन, मत या स्वमान्यता का राग । ये तीन प्रकार के राग दर्शन मोहनीय कर्म के उदयादि के कारण तत्त्व की तत्त्वरूप से श्रद्धा होने नहीं देते । इसलिए इन तीन प्रकार के रागों को त्याग करने की इच्छावाला साधक यह बोलकर उनको त्यागने का संकल्प करता है ।
इन तीन प्रकार के राग को निकालना इतना आसान नहीं है । इन राग का त्याग देव, गुरु एवं धर्म की आराधना से ही होता है । इसलिए, अब कहते हैं कि
८- ९-१०. सुदेव - सुगुरु-सुधर्म आदरूं :
सर्वज्ञ, रागादि दोषों को जीतनेवाले, तीनों लोक से पूजित, यथास्थित अर्थ को कहनेवाले, पूजा करने योग्य ऐसे परमेश्वर को सुदेव कहते हैं ।