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करेमि भंते सूत्र
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है, जो किया वह ठीक किया, ऐसी जो भावना करता है, वह पाप का अनुमोदन है। ऐसी क्रियाओं से ही जीव निरंतर कर्मबंध करता है । इसीलिए सामायिक करनेवाला साधक प्रतिज्ञा करता है, कि इस सामायिक काल के दौरान मन, वचन, काया से कोई पाप नहीं करूँगा, किसी को भी मन, वचन, काया से पाप की प्रेरणा नहीं करूँगा एवं पाप का निमित्त भी नहीं बनूँगा ।।
सामायिक करनेवाला श्रावक मन, वचन, काया से पाप नहीं करूँगा नहीं करवाऊँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करता है । परन्तु अनुमोदन नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करता, क्योंकि, संसार के ममत्वकृत संबंधों का वह सर्वथा त्याग नहीं कर सकता । वाणी का व्यवहार या काया से कोई पापमय प्रवृत्ति न होने पर भी जहाँ जहाँ ममत्व है, वहाँ वहाँ उसे आंशिक हर्ष, शोक इत्यादि भाव आने की शक्यता रहती है । इसीलिए वह तिविहं तिविहेणं का पच्चक्खाण नहीं करता, पर दुविहं तिविहेणं का पच्चक्खाण ही करता है ।
कोई भी प्रतिज्ञा लेने से पहले वह प्रतिज्ञा किस प्रकार ली है, उसका ज्ञान होना अति आवश्यक है । प्रतिज्ञा की जानकारी के बिना प्रतिज्ञा योग्य तरीके से नहीं पाली जा सकती । इसलिए यहाँ सावध योग का जो पच्चक्खाण किया है, वह किस प्रकार का किया है, वह जानने के लिए मन, वचन, काया के करण, करावण एवं अनुमोदन के साथ भिन्न भिन्न प्रकारों की १४७ प्रकार की गिनती को अब देखें । १४७ प्रकारों का वर्णन :
मन-वचन-काया के भिन्न भिन्न प्रकार सोचें तो सात11 प्रकार होते हैं 11. १. मैं मन से सावध व्यापार नहीं करूँगा ।
२. मैं वचन से सावध व्यापार नहीं करूँगा । ३. मैं काया से सावध व्यापार नहीं करूँगा । ४. मैं मन-वचन से सावध व्यापार नहीं करूँगा । ५. मैं मन-काया से सावध व्यापार नहीं करूँगा । ६. मैं वचन-काया से सावध व्यापार नहीं करूँगा । ७. मैं मन-वचन-काया से सावध व्यापार नहीं करूँगा ।