________________
२२६
सूत्र संवेदना
राग-द्वेष के सर्वथा अभावरूप सामायिक तो वीतराग की ही होती है । वीतराग अवस्था ग्यारहवें गुणस्थानक से पहले प्राप्त नहीं होती । साधक जब ग्यारहवें से चौदहवां गुणस्थानक प्राप्त करता है, तभी सर्वथा राग-द्वेष के अभाव रुप सामायिक हो सकती है ।
वीतराग अवस्था की पूर्व अवस्था में राग-द्वेष तो होते हैं, परन्तु वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि, जिससे साधक की मोक्ष या संसार विषयक 'मोक्षे भवे समो मुनिः' समवृत्तिवाली ही निर्विकल्प अवस्था होती है । ऐसी निर्विकल्प अवस्था की सामायिक अप्रमत्त मुनियों को ७ से १० गुणस्थान तक होती हैं।
इससे नीचे की कक्षा में रहे हुए मुनि भी संसार के तमाम भावों के प्रति उदासीन होते हैं । इसीलिए संसार के अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों में, शाता या अशाता के उदय में उनको समभाव रूप सामायिक होती है । ऐसा होते हुए भी उनको मोक्ष के प्रति तीव्र राग एवं संसार के भावों के प्रति तीव्र द्वेष होता है । इसीलिए, वे संसार के तमाम भावों से छूटकर, मोक्ष की शीघ्र प्राप्ति के लिए भगवान के वचन के अनुसार सतत प्रयत्नशील रहते हैं । संयम जीवन में कोई दोष न लगे उसके लिए उनका निरंतर प्रयास चालू रहता है । यह निरतिचार चारित्र स्वरूप समभाव है ।
इससे नीचे की भूमिका के मुनियों को भी मोक्ष की तीव्र इच्छा होती है एवं संसार के प्रति द्वेष भी होता है । ऐसा होने पर भी उनकी मोक्ष की इच्छा निरतिचार संयमवाले मुनि जैसी नहीं होती । इस कारण मोक्ष के लिए भगवान की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करते हुए भी उनमें पुनः पुनः स्खलना होने की संभावना रहती है । ऐसे छठें गुणस्थानकवर्ती मुनियों को सातिचार सामायिकवाले मुनि कहते हैं ।
श्रावकों को भी मोक्ष के उपाय रूप सामायिक की इच्छा रहती है, तो भी उनका ऐसा सत्त्व नहीं होता कि, वे उपर्युक्त में से एक भी सामायिक कर सकें । फिर भी सर्व सावध के त्यागरूप सर्वविरति के अभ्यास के लिए सर्वविरति के निकट जाने के लिए वे यह सूत्र बोलकर ४८ मिनट के लिए