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________________ १९६ सूत्र संवेदना बताने के लिए भगवान को लोकालोक प्रकाशक कहा है । जिस प्रकार जगत् प्रकाश्य है और ज्ञान प्रकाशक है, उसी प्रकार प्रकाश करनेवाला और प्रकाशित वस्तु ये दोनों भिन्न हैं, यह भी लोगस्स उज्जोअगरे पद से मालूम होता है । जिससे अद्वैत का मत गलत साबित होता है । जिज्ञासा : धम्मतित्थयरे जिणे... इत्यादि विशेषण किसलिए दिए गए है ? तृप्ति : लोक को प्रकाशित करनेवाले तो सामान्य से अवधिज्ञानी आदि भी हो सकते हैं, वैसे लोकप्रकाशक का यहाँ ग्रहण नहीं करना है, परन्तु धर्मतीर्थ के स्थापक के रूप में प्रभु की उपकारिता बताने के लिए धम्मतित्थयरे यह विशेषण रखा गया है । लोक में नदी वगैरह विषम स्थानों से पार उतरने के लिए बहुत भद्रिक जीव धर्म के हेतु से (ओवारा) सीढियाँ वगैरह बनाते हैं, उन ओवारा वगैरह को भी तीर्थ कहा जाता है । ऐसे तीर्थों को धर्म के हेतु से बनानेवाले जीवों को भी धर्मतीर्थंकर कहा जाता है, परन्तु यहाँ ऐसे धर्मतीर्थंकरों की स्तुति करने का आशय नहीं है, इसीलिए लोक को उद्योत करनेवाले यह विशेषण रखना जरूरी है । ऐसा प्रयोग करके देव, दानव, मनुष्यों की सभा में सभी अपनी-अपनी भाषा में समझ सकें, ऐसी वाणी द्वारा जिन्होंने धर्मतीर्थ की स्थापना की है, ऐसे ही अरिहंत भगवंतों का ग्रहण होगा। ___ कुछ जैनेतर दर्शन भी अपने परमात्मा को लोक उद्योतकर और धर्मतीर्थंकर मानते हैं, लेकिन इसके साथ यह भी मानते हैं कि, स्वयं द्वारा स्थापित तीर्थ को जब हानि पहुँचती है, तब वे परमात्मा पुनः अवतार लेकर संसार में आते हैं । जो तीर्थ के राग से पुनः संसार में आए या अवतार ले, वे जिन नहीं कहलाते । इसलिए उनकी कटौती करने के लिए 'जिणे' इस विशेषण का प्रयोग किया गया है । यदि मात्र 'जिन' विशेषण ही रखा जाए, तो अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी तथा चौदह पूर्वधर वगैरह जो शास्त्रों में जिन कहलाते हैं, उनका
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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