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29.लोकवल्लभ : सद्गृहस्थ को लोकप्रिय होना जरूरी है । लोकप्रिय वही हो सकता है जो विनय,
नम्रता, सेवा, सरलता, दया आदि गुणों से युक्त हो । 30.लज्जावान : सद्गृहस्थ के लिए लज्जा का गुण परमावश्यक है । लज्जावान व्यक्ति किसी भी
पापकर्म को करते हुए संकोच करेगा और प्राण चले जाये पर अंगीकार किये हुए व्रत-नियमों का भंग नहीं करेगा । लज्जा अनेक गुणों की जननी है । वह अत्यन्त शुद्ध हृदय वाली आर्यमाता के समान
"जहाँ शर्म है वहाँ धर्म अवश्य होगा ।" 31.दयावान : दु:खी जीवों का दु:ख दूर करने की अभिलाषा दया कहलाती है । व्यक्ति को जैसे अपने
प्राण प्रिय हैं वैसे ही सभी जीवों को अपने प्राण उतने ही प्रिय होते हैं । संकट के समय मनुष्य अपनी
आत्मा पर दया चाहता है वैसे ही समस्त जीवों पर दया करें । 32.सौम्य : सद्गृहस्थ की प्रकृति और आकृति सौम्य होनी चाहिए । क्रूर आकृति और भयंकर स्वभाव
वाला व्यक्ति लोगों के अंदर उद्वेग पैदा कर देता है । जबकि सौम्य व्यक्ति से कोई भयभीत नहीं
होता, बल्कि प्रभावित होते हैं । 33.षट् अन्तरंग शत्रुओं के त्याग में उद्यत : गृहस्थ के लिए काम, क्रोध, लोभ, मान, हर्ष और मत्सर
यह छ: अंतरंग शत्रु कहे गये हैं । दूसरों की परिणीता अथवा अपरिणीता स्त्री के साथ भोग की इच्छा करना वह है काम । अपनी अथवा पराई हानि को सोचकर या बिना सोचे ही गुस्सा करना, वह है क्रोध । दान देने योग्य व्यक्ति को दान न देना तथा अकारण पराया धन ग्रहण करना, वह है लोभ । किसी के योग्य उपदेश को दुराग्रहवश नहीं मानना, वह है मान । बिना कारण जीवो को दु:ख देकर तथा जुआ, शिकार आदि अनर्थकारी कार्यों में आनंद मनाना हर्ष कहलाता है । और किसी की
उन्नति देखकर कूढ़ना, डाह देना मत्सर है । ये छ: हानिकारक होने से त्याग करने योग्य हैं । 35.इन्द्रिय-समुह को वश करने में तत्पर : अपने इन्द्रिय समुह को यथोचित मात्रा में वश करने का
अभ्यास करना चाहिए ।
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