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________________ लेश्या लेश्या यह जैन दर्शन में सुप्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द है। काययोग के अंतर्गत कृष्णादि द्रव्य के संबंध से उत्पन्न होने वाले आत्मा के परिणाम विशेष को लेश्या कहते हैं। स्फटिक रत्न के छिद्र में जिस रंग का धागा पिरोया जाय, रत्न उसी रंग का दृष्टिगोचर होता है। वैसे ही आत्मा के अच्छे बुरे मनोभाव रूपी भाव लेश्या को उत्पन्न करनेवाला जो योगान्तर्गत पुद्गल द्रव्य है, वह द्रव्य लेश्या कहलाता हैं । जिस प्रकार की लेश्या द्रव्य का उद्भव होता है, वैसा ही उसका आत्म परिणाम होता है । उपचारवश उक्त द्रव्य भी लेश्या कहलाता है। लेश्या 6 प्रकार की हैं: 1) कृष्ण 2) नील 3) कापोत 4) तेजो 5) पद्म 6) शुक्ल लेश्या। उपरोक्त प्रत्येक द्रव्य लेश्या स्व-नामानुसार वर्णवाली है। संबंधित वर्णवाली लेश्याएँ हमारे आत्मा में भी उसी तरह के तीव्र, मंद, शुभाशुभ अध्यवसाय उत्पन्न करती है। लेश्या का स्वभाव 1) कृष्णलेश्या से युक्त आत्मा-शत्रुतावश निर्दयी, अति क्रोधी, भयंकर मुखाकृति वाला, तीक्ष्ण कठोर, आत्मधर्म से विमुख और हत्यारा (वध कृत्य करनेवाला) होता है। 2) नीललेश्या युक्त आत्मा : मायावी, दांभिक वृत्तिवाला, लांच रिश्वत लेने का आग्रही, चंचल चित्तवाला, अतिविषयी और मृषावादी होता है। 3) कापोतलेश्या युक्त आत्मा : मूर्ख, आरंभ-मग्न, किसी भी कार्य में पाप नहीं मानने वाला, लाभालाभ के प्रति उदासीन, अविचारक एवं क्रोधी होता है। तेजोलेश्या युक्त जीव : दक्ष, कुशल कर्म करनेवाला, सरल, दानी, शीलयुक्त, धर्मबुद्धि से युक्त एवं शांत होता है। पद्मलेश्या युक्त आत्मा : प्राणियों के प्रति अनुकंपा प्रदर्शित करनेवाला, स्थिर, सभी जीवों को दान देनेवाला, अति कुशल, कुशाग्र बुद्धिवाला एवं ज्ञानी होता है। 6) शुक्ललेश्या युक्त आत्मा : धर्म बुद्धि से युक्त, सभी कार्यों में पाप से दूर रहने वाला, हिंसादि पापों ___ में अरुचि रखनेवाला और दुर्गुणों के प्रति अपक्षपाती होता है। प्रस्तुत विषय का अधिक स्पष्टीकरण करने के लिये शास्त्र-ग्रन्थों में जंबुवृक्ष एवं चोर का उदाहरण दिया गया है। वह इस प्रकार है: जंबुवृक्ष का दृष्टांत ___एक बार मार्ग-भूले छह पथिक किसी जंगल में जा पहुँचे । तीव्र क्षुधा और तृषा से उनका बुरा हाल था। अत: वे इष्ट भोजन और जल की खोज में इधर-उधर भटकने लगे । अचानक उन्हें जामुन से लदा एक जंबुवृक्ष दृष्टिगोचर हुआ । लालायित हो, वे वृक्ष के पास गये और ललचाई नजर से जामुन की ओर देखने लगे। 65
SR No.006120
Book TitleJain Tattva Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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