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नामकर्म के बंध के कारण (1)अशुभ नामकर्म- मन, वचन, काया की वक्रता, दूसरों को ठगना, कपट, छल का प्रयोग, चिड़चिड़ा स्वभाव, मिथ्यात्व, वाचालता, अपशब्दों का प्रयोग, चित्त की अस्थिरता, माल में मिलावट करना, टोना-टोटका करना, परनिंदा, चापलूसी, हिंसादि व्रतों का सेवन, हिंसा, असत्य, असभ्य वचन, सुंदर वेशादिका गर्व करना, कौतुक हँसी मजाक, दूसरों को हैरान परेशान करना, वेश्यादि को अलंकार दानादि देना, आग लगाना, चैत्य, प्रतिमा, बगीचे-उद्यान का नाश करना, कोयले बनाने का व्यवसाय करना इत्यादि कारणों से अशुभ नाम कर्म का बंध होता है।
(2) शुभ नामकर्म बंध का कारण : अशुभ नाम कर्म के विपरीत शुभ क्रिया करना, संसार भीरूता, पापभय, प्रमाद का त्याग, सद्भाव, क्षमादि गुण, धार्मिक जन संपर्क, दर्शन, स्वागत, परोपकार इत्यादि कारणों से शुभनामकर्म बंध होता है । नामकर्म चितारे के जैसा है । जिस प्रकार चित्रकार मनुष्य, देव हाथी आदि के चित्र बनाता है, वैसे ही नामकर्म अरूपी ऐसी आत्मा को गति, जाति सदृश अनेक रूपों में तैयार करता है।
अंतराय कर्म बंध के कारण जिनपूजा में विघ्न डालनेवाला, दानादि चार प्रकार के धर्म में विघ्न पैदा करनेवाला, हिंसादि में (18 पापस्थानों में) मग्न, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि में दूषण दिखाकर अकारण ही विघ्न उपस्थित करने वाला, वध-बंधन से प्राणियों को निश्चेतन करने वाला, छेदन-भेदन से इन्द्रियों का नाश करनेवाला, धर्मयोग में प्रमादी बनाकर शक्ति का उपयोग नहीं करनेवाला वगैरह । ___ उपसंहार : कर्म को खींचकर लानेवाले आश्रवों का सेवन बंध हो और प्रतिपक्षी सम्यक्त्वादि संवर का सेवन होता हो तो नये कर्मों का अनुबन्ध-बन्ध रुक जाता है । ठीक वैसे ही पुराने कर्मों का निर्मूलन बारह प्रकार के तप से होता है । फलत: सर्व कर्मों से विरहित आत्मा मोक्ष अवस्था की प्राप्ति करता है और अनंत ज्ञानादि मूलस्वरूप में प्रकट होता है। अत: कर्म के अभाव से राग द्वेष रूपी आश्रव न होने के कारण कभी भी कर्म बंधन नहीं होता।
प.पू. धर्मदास गणि भवगंत उपदेश माला में कहते हैं कि जीव जिस जिस समय जैसे जैसे शुभअशुभ परिणाम को प्राप्त होता है, उस उस समय में शुभ-अशुभ कर्म बंध करता रहता है । परिणाम स्वरूप वह सुख दु:ख का अनुभव करता है । सुख के समय यदि राग बुद्धि एवं दु:ख के समय द्वेष बुद्धि का परित्याग करने में न आए तब तक आत्मशुद्धि होना निहायत असंभव है।
___ कर्म ग्रंथ के अध्ययन से कर्म के मूल राग-द्वेष का ज्ञान होता है, इस सत्य को समझकर, उसको रोकने में समर्थ, सर्वविरति रूप संवर, तप से कर्म क्षय रूपी निर्जरा एवं शुक्लध्यान से सभी कर्मों का क्षय करने के लिये पुरुषार्थ आवश्यक है।
कर्मग्रन्थादि शास्त्रों की पढाई का सार सर्वविरति एवं जीवन शुद्धि करना है ।
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