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उनका समय बीतने लगा ।
एक बार उस नगर के उद्यान में केवलज्ञानी दमसार महामुनि का पदार्पण हुआ । देवपाल राजा भ मंत्री, रानी इत्यादि के साथ वंदन करने के लिए गए । नमस्कार करके बैठे। सोने के कमल पर बैठे हुए दमसार केवली भगवंत ने धर्म देशना दी, जिसमें जिनेश्वर की भक्ति का वर्णन किया और बताया की उत्कृष्ट द्रव्य पूजा करने से अच्युत देवलोक तथा भावपूजा से अंतमुहूर्त में मोक्ष फल की प्राप्ति हो सकती है । द्रव्य पूजा तथा भावपूजा के बीच में मेरु तथा सरसों जितना अंतर है । इत्यादि जिनेन्द्र भक्ति की महिमा सुनकर राजा ने उन गुरु से सम्यग् दर्शन सहित अरिहंत भगवंत के धर्म को स्वीकार किया तथा नगर में सोने का जिनेश्वर भगवान का मंदिर बनवाया और उसमें बाहर की झोपडी में से प्रतिमा मंगवाकर केवलज्ञानी के हाथों से प्रतिष्ठा करवाई तथा अन्य भी उसमें प्रतिमाएं स्थापित की । सर्व पर्वों इत्यादि में स्नात्र महोत्सव करवाता था तथा साधर्मिक भक्ति, दीन दुःखियों को दान, तीर्थयात्रा इत्यादि विधिपूर्वक करता था। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक प्रथम अरिहंत पद की भक्ति करते हुए उसने तीर्थंकर नाम कर्म बांधा। देखो बालकों, एक रबारी के जीव ने कैसे उत्कृष्ट भाव तथा श्रद्धा से प्रभु की भक्ति, पूजा सेवा की जिससे उसने तीर्थंकर नामकर्म बांध लिया। हम भी ऐसे ही भावपूर्वक भगवान की पूजा-सेवा करें तो तीर्थंकर नामकर्म बांध सकते हैं ।
एक बार राजा के साथ रानी महल के गवाक्ष में खडी थी। राज्य मार्ग से एक लकड़हारा लकडों का ढेर लेकर चला आ रहा था जिसको देखते ही रानी मूर्च्छित होकर गिर पडी। थोडी देर में शीतलोपचार से होश आया, रानी ने कहा कि उस लकडहारे को यहाँ बुलाओ । राजा ने तुरंत उसको बुलवाया, तब रानी ने उसको पूछा कि क्या तुम मुझे पहचानते हो ? लकडहारे ने कहा कि मैं नहीं जानता। तब रानी ने राजा को कहा कि राजन्, पूर्व भव में मैं इस लकडहारे की पत्नी थी। हम जंगल में जाकर लकडे काटते थे और उनको बेचते थे । आप जिस भगवान की रोज पूजा करते हो, उन भगवान को मैंने झाडी में देखा था ।
एक बार किसी मुनिराज को मैंने पूछा कि "एक पद्मासन वाले भगवान जंगल में हैं । तो उन्होंने कहा कि तू रोज उनके दर्शन करना जिससे तेरा कल्याण होगा। तू नियम ग्रहण कर लें, जिससे तुझे सदा दर्शन का लाभ मिलेगा और प्रमाद में दर्शन से वंचित नहीं रहना पडेगा । इस कठियारे को मैंने और मुनिश्री
बहुत कहा किंतु उसने नियम नहीं लिया, मैंने नियम ले लिया। मैं रोज दर्शन तथा प्रतिमा पर पुष्पादि अर्पण करती थी । वह लकडहारा अभव्य का जीव होने के कारण, उसने प्रभु पर श्रद्धा नहीं की तथा हँसी मजाक करते हुए उसने उन भगवान को नमन नहीं किया। उसके बाद मेरी मृत्यु होने पर मैं प्रभु के प्रताप
यहाँ के राजा की कन्या हुई तथा यह लकड़हारा अब भी लकडों का भार उठाकर अपना जीवन निर्वाह करता है । उम्र अधिक होने के कारण शरीर जर्जरित हो गया है। दुष्कर्म के कारण दुःख से पेट भरता है, दुःखों का अनुभव करता है किंतु धर्म के बिना जीव की कौन संभाल लें ? न धन मिला, न धर्म मिला । जीवन फालतू गया ।" यह सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ । लकडहारे को भी राजा ने धर्म तथा अरिहंत
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