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________________ वस्तुएं खिलाएँ तब भी उनके उपकार का ऋण एक भव में नहीं चुकाया जा सकता। अजैन ग्रंथ में भी बताया गया है कि सभी पवित्र नदियों में स्नान करने या तीर्थों की यात्रा करने से जो लाभ मिलता है, उससे भी अधिक लाभ माता-पिता की भक्ति से मिलता है। अत: श्रवणकुमार की तरह उन्हें तीर्थयात्रा व धर्म आराधना भली प्रकार करावे ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले, उनकी सद्गति हो ऐसा करना चाहिए, तभी उनके महान् उपकारों का कुछ ऋण चुकाया जा सकता है। ऐसे तीर्थ स्वरूप माता-पिता के उपकारो का हमने कभी विचार किया है ? बालकों ! तुम अभी तो छोटे हो अत: माँ-माँ कहते हो, किंतु बडे होने के बाद भी माता को छोडना मत। उनको दुःख देना मत। यह बात तुम्हारे अकेले के लिए नहीं, किंतु बडों को भी समझने की आवश्यकता है। ___व्यापार में कोई थोडी भी सहायता करता है, किसी व्यापारी से अच्छी पहचान करवाता है, कोई सौदा करवाता है, तो हम उसका उपकार मानकर उसका आभार व्यक्त करते है कि उसने हमें बहुत सहायता दी। इसी प्रकार अपनी माता के उपकार के भी दस व्यक्तियों के सन्मुख गुण गाने चाहिए। ___ प्रतिदिन ऐसा विचार करना चाहिए कि मेरी माता ने मेरे लिए कैसा कमाल किया है ? उसकी गोद में बैठकर मैं टट्टी-पेिशाब करता था, गंदगी करता था, फिर भी मां ने मुझे थप्पड नहीं मारी, मुझे प्रेम से साफ किया, मेरे गंदे कपड़ों को धोए और मुझे प्रेम से स्तन-पान करवाया। मेरी माता के इन अनन्य उपकारों को मैं कभी भूलूंगा नहीं। मेरी माता के मुझ पर अनन्य उपकार है। इनके ऋण को मैं कब चूका पाऊँगा। ऐसा सभी पुत्रों को विचार करना चहिए। बोलो, क्या आपने ऐसा विचार किया कभी ? ___ माता यदि अशिक्षित हो, गँवार जैसी हो, फिर भी मेरी माँ है। ऐसा विचार अपने मन को एवं हृदय को द्रवित कर देना चाहिए, एवं अपना मस्तक उनके चरणों में झुक जाना चाहिए। नही तो अपनी होशीयारी, अपना ज्ञान, अपना धर्म निरर्थक है। जिसने माता-पिता को प्रसन्नचित्त नहीं रखा, जिसने माता-पिता का हार्दिक आशीर्वाद प्राप्त नहीं किया, उसकी बुद्धि का अभिमान एक दिन उसे डुबा देगा, उसकी सम्पत्ति उसे किसी दिन विपथगामी बना देगी। जैसी भी हो वह अपनी माता है, बस यह एक ही बात अपने लिए पर्याप्त है। बात बात में माता-पिता की अवज्ञा करने वाले, माता-पिता को तुच्छ गिनने वाले उन्हें अपमानित करने वाले, बैठे बैठे तू क्या समझती है ? ऐसा कहने वालों को गहन विचार करने की आवश्यकता है। __ मैं आपको अति प्रेमपूर्वक कहना चाहता हूँ कि माता-पिता के उपकारों को कभी हृदय से दूर मत करना। उन्हें सदैव स्मृति पटल पर रखना। धर्म का पहला सिद्धांत : माता-पिता के उपकारों के प्रति कृतज्ञता रखना। माता-पिता के उपकारों को समझना अत्यंत आवश्यक है। आज हम स्वयं को इतने होशियार मानने 453 - -
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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