SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाँधकर वह रस्से पर नृत्य करने लगा। उस समय राजा की नजर लंखीकार की पुत्री पर पड़ी और वह उस पर मोहित हुआ । उसे कैसे पाया जाय? उसने सोचा कि वह नट रस्से पर से गिर जाय और मर जाय तो नटनी को पा सकेगा । इस कारण दुबारा रस्से पर नाच करने को कहा । इलाचीकुमार ने दुबारा रस्से पर जाकर उत्कृष्ट नृत्य किया लेकिन राजा खुश न हुआ । उसने फिर से निराधार रस्से पर नृत्य करने को कहा । इस बार राजा के भाव ऐसे थे कि नटकार रस्से पर से संतुलन गँवा दे और गिरकर मर जाये और नटीनी को प्राप्त कर सके । इलाचीकुमार के भाव ऐसे थे कि राजा कैसे खुश होकर बड़ा इनाम दें और नटनी के साथ ब्याह करूं | दोनों के भाव भिन्न-भिन्न थे । इस प्रकार राजा बार-बार नृत्य करने को कहते थे । इलाचीकुमार समझ गया कि राजा की भावना बुरी है । वह मेरी मृत्यु चाह रहा है । इस पार इलाचीकुमार ने दूर एक दृश्य देखा। एक सुंदर स्त्री साधू महाराज को भिक्षा दे रही थी, साधू रंभा जैसी स्त्री के सामने देखते भी नहीं हैं। धन्य हैं ऐसे साधू के ! वह कहाँ और मैं कहाँ ? माता-पिता की बात न मानी और एक नटनी पर मोहित होकर मैंने कुल को कलंकित किया ।' ऐसा सोचते-सोचते चित्त वैराग्यवासित हुआ । रस्से पर नाचता इलाचीकुमार अनित्य भावना का चिंतन करने लगा और उसके कर्मसमूह का भेदन हुआ, जिससे उसने केवलज्ञान पाया और देवताओं ने आकर स्वर्णकमल रचा । उस पर बैठकर इलाचीकुमार ने राजा सहित सबको धर्म देशना दी । राजा के पूछने पर अपने पूर्वभव की बात कही । जाति के घमण्ड के कारण पूर्व भव की उसकी स्त्री मोहिनी लंखीकार की पुत्री बनी और पूर्वभव के स्नेहवश स्वयं इस नटपुत्री पर मोहित हुआ था । राजा को भी सभी कथानक सुनकर वैराग्य वश केवलज्ञान प्राप्त हुआ। E. चंद्रा और सगर ने क्रोध की आलोचन न ली... वर्धमान नगर में सुघड़ नाम का कुलपुत्र था । उसकी चन्द्रा नाम की पत्नी थी। उसे सगर नाम का पुत्र था । घर में दरिद्रता होने से दोनों मजदूरी कर जीवन चलाते थे । युवावस्था में ही सुघड़ की मृत्यु हो गई। एक दिन चन्द्रा किसी के घर के काम करने बाहर गई हुई थी। वहां कामकाज ज्यादा होने से आने में देरी हो गई इतने में उसका पुत्र जंगल से लकड़ी का गट्ठर लेकर आया । चारों ओर देखने पर भी भोजन दिखाई नहीं दिया। जिससे वह अत्याकुल हो गया । इतने में काम पूर्ण करके भूख और प्यास से व्याकुल चन्द्रा आ रही थी। तब क्रोध से धधकते हुए सगर ने कहा कि-"क्या तू कही शूली पर चढ़ने गई थी? इतनी देर कहाँ लगी?" इतने कठोर और तिरस्कार पूर्ण शब्दों को सुनकर चंद्रा क्रोध से लाल-पीली होकर बोली- 'क्या तेरी कलाई कट गई थी कि जिसके कारण तुझे सीके पर से भोजन लेने में जोर पड़ता था?" इस प्रकार के क्रोधमय वचनों को बोलकर, आलोचना नहीं ली। शास्त्र में कहा हैं कि- "ते पुण मूढतणो कत्थवि नालोइय कहवि" मूढ़ता के कारण उन्होंले आलोचना नहीं ली। काल करके अनुक्रम से सर्ग का जीव ताम्रलिप्त नगर में अरुणदेव नाम का श्रेष्ठीपुत्र बना और चन्द्रा का जीव पाटलीपुत्र में जसादित्य के यहां पुत्री के रूप में जन्म पाया। उसका नाम देवणी रखा गया। यौवन वय में योगानुयोग अरूणदेव और 89
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy