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नटपुत्री को वह भुला न सका था । ऐसी स्थिति देखकर उसके पिता ने पूछा, हे पुत्र ! तेरा मन क्यों व्यग्र है ? किसी ने तेरा अपराध किया है ।' इलाचीकुमार ने जवाब दिया, 'पिताजी! मैं सन्मार्ग प्रवर्तनादि सब कुछ समझता हूँ, पर लाचार हूँ । मेरा मन नटपुत्री में ही लगा हुआ है ।' पिताजी समझ गये कि 'मैंने ही भूल की थी । उसे कुसंगति में छोड़ा जिसका फल भुगतने की बारी आई । अब मैं निषेध करके उसको रोडूंगा तो वह मृत्यु पायेगा, तो मेरी क्या गति होगी । भला-बुरा सोचकर वह उस नट से मिले और अपने पुत्र के लिए उसकी पुत्री की माँग की । नट बोला, अच्छा ! यदि आपके पुत्र की ऐसी ही इच्छा हो तो उसे हमारे पास भेजो ।'
कोई और मार्ग न होने से पिता ने इलाचीपुत्र को नटपुत्री के साथ ब्याह करने की स्वीकृति देकर पुत्र को नट के पास भेजा । नट ने इलाचीपुत्र को कहा,'यदि नट पुत्री से ब्याह करना हो तो हमारी नृत्यकला सीख । उसमें प्रवीणता मिलने पर यह कन्या तुझको दूंगा ।'
कामार्थी इलाचीकुमार नृत्यकला सीखने लगा । अल्प समय में ही वह नृत्यकला में माहिर हो गया । लंखीकार इलाचीकुमार और अपनी पुत्री को नचाते हुए द्रव्य उपार्जित करने लगा। खूब द्रव्य उपार्जन के बाद महोत्सवपूर्वक पुत्री का ब्याह करने की लंखीकार ने शर्त रखी।
बड़े पैमाने पर द्रव्य उपार्जन करना हो तो कोई बड़े राज्य में जाकर राजामहाराजा को नृत्य से खुश करना चाहिये - ऐसे ख्याल से लंखीकार इलाचीकुमार तथा उसकी पूरी मण्डली को लेकर बेनातट नगर को गये । वहाँ इलाचीकुमार ने राजा महीपाल को कहा,'हमें आपको एक नाटक बताना है।' राजा ने हाँ कह दी। उसने विनय सहित नाट्य और नृत्य के
प्रयोग शुरू किये । बांस की दो घोड़ी Lबनायी । दोनों के बीच एक रस्सी
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