________________
पश्चाताप करते हुए प्रभु के पास आकर चरणों में गिरकर वंदना की और कहा, मेरे पिता ने आपके वचनों को सुनने का निषेध करके मुझे ठगा है, कृपा करके मुझे संसार सागर से बचाओ । मैं आपके अल्प वचनों को सुनकर राजा के मृत्युदण्ड से बचा हूँ । अब उपकार करके, योग्य लगे तो मुझे चारित्र ग्रहण करवाईये । प्रभु ने व्रत देने की हाँ कह दी । किये हुए पापों की क्षमायाचना हेतु चोर ने श्रेणिक महाराजा के पास जाकर चोरी वगैरह का इकरार किया और अभयकुमार को संग्रहित चोरी के माल का पता दिया । और प्रभु से दीक्षा ग्रहण की । क्रमानुसार एक उपवास से लेकर छः मासी उपवास की उग्र तपश्चर्या करने के बाद वैभार पर्वत पर जाकर अनशन किया । शुभ ध्यानपूर्वक पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए देह छोड़कर स्वर्ग पधारे ।
भव
सर
C. श्री नयसार
जंबूद्वीप में जयंती नामक नगरी थी । वहाँ शत्रुमर्दन नामक राजा राज्य करते थे । उसके पृथ्वी प्रतिष्ठान नामक गाँव में नयसार नामक स्वामी भक्त मुखिया थे । उनका किसी कोई साधु-महात्माओं के साथ सम्पर्क न था । लेकिन वह अपकृत्यों से पराङमुख दूसरों के दोष देखने से विमुख और गुण ग्रहण में तत्पर रहता था ।
एक बार राजा की आज्ञा से लकड़े लेने वह खाना लेकर जंगल में गया । वृक्ष काटते हुए मध्यान्ह का समय हुआ और खूब भूख भी लगी । उस समय नयसार के साथ आये अन्य सेवकों ने उत्तम भोजन सामग्री परोसी, नयसार को भोजन के लिये बुलाया । स्वयं क्षुधातृषा से आतुर था लेकिन 'कोई अतिथि आये तो उसे भोजन कराने के बाद भोजन करूँ' - ऐसा सोचकर आसपास देखने लगा । इतने में क्षुधातुर, तृषातुर और पसीने से जिनके अंग तरबतर हो गये थे ऐसे कुछ मुनि उस तरफ आ पहुँचे । 'अहा ! ये मुनि मेरे अतिथि बनें, बहुत अच्छा हुआ ।' ऐसा चिंतन करते हुए नयसार ने उनको नमस्कार करके पूछा, 'हे भगवंत ! ऐसे बड़े जंगल में आप कहाँ से आ गये । कोई शस्त्रधारी भी इस जंगल में अकेले घूम नहीं सकता ।' मुनियों ने कहा: 'प्रारंभ से हम हमारे स्थान से सार्थ के साथ चले थे । मार्ग में हम एक गाँव में भिक्षा लेने गये और सार्थ चल पड़ा । हमें कुछ भिक्षा भी न मिली । हम सार्थ को ढूंढते हुए आगे ही आगे
-
86