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________________ 2. संवेग :- देव और मनुष्य सम्बन्धी भोग-सुख, दु:ख रूप लगे साथ ही उनके प्रति हेय बुद्धि रखकर केवल आत्मिक सुख की तीव्र अभिलाषा रखना। 3) निर्वेद :-. संसार में जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि और उपाधि के प्रत्यक्ष दर्दनाक दुःख देख कर उनसे छूटने की तीव्र इच्छा रखना। 4) अनुकम्पा :- दु:खी जीवों के दु:ख को देखकर, उनके दु:ख दूर करने की भावना रखना। रोग, शोक, दरिद्रता आदि दुःख दूर करने की भावना, वह द्रव्य अनुकम्पा है और धर्महीन जीवों के मिथ्यात्व आदि दोष दूर करने की अर्थात् धर्म की प्राप्ति कराने की भावना वह भाव अनुकम्पा है। 5. आस्तिकता : श्री जिनेश्वर भगवान द्वारा बताया हुआ तत्त्व ज्ञान ही सत्य है, ऐसा मानना और सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर अटल श्रद्धा रखना। जीव तत्त्व जीव तत्त्व की कुछ विचारणा :* विश्व की व्यापकता केवल दो तत्त्वों पर ही निर्भर है। ये दो तत्त्व हैं, जीव और अजीव । * जिसमें चेतना है, वह जीव है। जीव तत्त्व के ज्ञान से आत्मा के स्वरूप की पहचान होती है। * मैं, ज्ञानमय, सुखमय और आनन्दमय हूँ। * चैतन्य मेरा स्वभाव है। * मोक्ष ही मेरा ध्येय है। संसारी अवस्था में मेरा सहज आत्मस्वरूप कर्मों से आच्छादित हो गया है। कर्मों के इन आवरणों को दूर हटाने के लिए मुझे हेय, ज्ञेय, उपादेय तत्त्वों की पहचान प्राप्त करनी चाहिये। हेय-पाप, आश्रव एवं बंध तत्त्व हैं, इनका त्याग करना चाहिए और पुण्य, संवर, निर्जरा जो मुक्ति मार्ग के साधन हैं, उनका सहारा लेकर आत्मा के अनंतज्ञान, दर्शन और चारित्र गुण को प्रगट करने का प्रयत्न करना चाहिए। जीव अरूपी होने से आँखों से नहीं दिखता फिर भी जीवंत व्यक्ति के शरीर की विशिष्ट चेष्टाओं के द्वारा शरीर में जीव होने का हम अनुमान लगा सकते हैं एवं इसी से जीव के स्वतंत्र अस्तित्व की सिद्धि भी होती है। शरीर में से जीव के निकल जाने पर शरीर की सारी प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं, वही मृत्यु है। भिन्न-भिन्न अपेक्षा से जीव के अनेक भेद हैं। उन भेदों के ज्ञान से हमारी दृष्टि विशाल बनती है। सर्व सिद्धात्माओं में और सर्व संसारी जीवों में चेतना शक्ति अवश्य होती है। इस अपेक्षा से सभी जीवों की एकता और सादृश्यता का ज्ञान होता है। वह ज्ञान जीव को आध्यात्मिक साधना के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए प्रेरक बनता है और संसार के समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव प्रगट करने की शिक्षा देता है। जीव स्वयं अरूपी है - लेकिन वह संसारी अवस्था में पुद्गल से बने शरीर में रहता है। एवं शरीर के आकार को धारण करता है। यद्यपि स्वभाव से सर्व जीव एक समान होने से उनके भेद नहीं हो सकते फिर भी कर्म के उदय से प्राप्त शरीर की अपेक्षा से जीव के दो, तीन, चार, पाँच, छ:, चौदह और विस्तृत रूप
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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