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________________ जानकर विलाप करते हैं। सभी देव अवधिज्ञानी या विभंगज्ञानी होते हैं। जमीन से चार अंगुल ऊपर चलते हैं, आँखोंकी पलके नहीं झपकती, शरीर पर पसीना नहीं होता, देवो के केश (बाल) हड्डी, दांत, मांस, नख, रोम, खून, चरबी, चमडी, मूत्र एवं विष्टा नहीं होती। वे वैक्रिय शरीर (मन चाहे वैसा छोटाबड़ा) बना सकते हैं एवं वैक्रिय शरीर बनाते समय शौक से केशादि भी बनाते हैं। यह शरीर निर्मल कांति वाला, सुगंधि श्वासोश्वास वाला, मेल तथा पसीने से रहित होता है। देवलोक में रात-दिन नहीं होते, विमानों के तल भाग का एवं दीवारों का तथा देवों के शरीर का ही प्रकाश अधिक होता है। देवलोक में चिंटियाँ, मच्छर वगैरह विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते, देवों का उत्कृष्ट आयु 33 सागरोपम का होता है। 7 हाथ तक की इनकी काया होती है। जितने सागरोपम का आयुष्य होता है। उतने हजार वर्ष में देवो को एक बार खाने की इच्छा होती है एवं उतने ही पखवाडियो में एक बार श्वासोश्वास लेते हैं। ___ वहाँ इतना सब कुछ होने पर भी शांति नहीं होती है। उनमें लोभ ज्यादा होने से ईर्ष्या करके लडाई करते हैं। फिर मरकर लगभग पृथ्वीकाय, अपकाय, वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं। अच्छे देव भगवान ' के समवसरण में भी आते हैं। भक्ति करते हैं। वहाँ सब कुछ होने पर भी वे एक नवकारशी जितना भी पच्चक्खाण नहीं कर सकते, वहाँ कर्मक्षय कम होता है। पुण्य खाली हो जाता है। वे मोक्ष में नहीं जा सकते। वे भी हमेशा मोक्ष जाने के लिए मनुष्य बनने की इच्छा करते हैं। क्योंकि मनुष्य ही मोक्ष जा सकता है। वहाँ इतना सुख होने पर भी साधु भगवंत से कम सुख है। अर्थात् वे साधु को नमस्कार करते है। प्रश्न : देवलोक में कौन जाते हैं ? उत्तर : जो प्रभु की पूजा-दर्शन करता है, बडो की सेवा करनेवाला, झगडा नहीं करने वाला, कष्ट सहन करने वाला, रात्रि भोजन, कंदमूल, होटल, टी.वी. का त्यागी, सबके साथ मित्रता रखनेवाला, दीक्षा लेने वाला, सुपात्रदान, धर्म श्रवण की आदत, तप, श्रद्धा, दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना करनेवाला एवं मरण समय में पद्म और तेजोलेश्या के परिणाम रखनेवाले देवलोक में जाते हैं। ई) नरक का स्वरूप तिर्छा लोक के नीचे अधोलोक में 7 राजलोक में 7 नरक हैं। वहाँ संख्याता एवं असंख्य ता योजन वाले नरकावास होते हैं। ये कुल नरकावास 84 लाख हैं। नारकी जीवों को उत्पन्न होने के गोखले होते हैं। यही उनकी योनि है। पापी जीव नरक में जाते हैं। वहाँ उत्पन्न होते ही अंतमुहूर्त (48 मिनट से कुछ कम समय) में शरीर गोखले से भी बड़ा हो जाने से नीचे गिरने लगता है। उतने में तुरंत परमाधामी वहाँ आकर पूर्वकृत कर्म के अनुसार उनको दुःख देने लगते हैं। जैसे मद्य पीने वाले को गरम सीसा पिलाते हैं। पर स्त्री लंपटी को अग्निमय लोह पुतली के साथ आलिंगन कराते हैं। भाले से वींधते हैं, तेल में तलते हैं, भट्टी में सेकते हैं, घाणी में पीलते हैं, करवत से काटते हैं। पक्षी, सिंह आदि का रूप बनाकर पीडा देते हैं, खून की नदी में डूबाते ८ हैं, तलवार के समान पत्तेवाले वन एवं गरम रेती में दौडाते हैं। वज्रमय कुंभी में जब इनको तपा पा जाता है, तब 60
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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