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9. भोजन - विवेक A. बाईस (22) अभक्ष्य और बत्तीस (32) अनंतकाय
आहार का सम्बन्ध जितना शरीर के साथ है ठीक उतना ही मन एवम् जीवन के साथ भी है। जैसा अन्न वैसा मन और जैसा मन वैसा ही जीवन। साथ ही जैसा जीवन वैसा ही मरण (मृत्यु)। आहार शुद्धि से विचार शुद्धि और विचार शुद्धि से व्यवहार शुद्धि आती है। दूषित अभक्ष्य आहार ग्रहण करने से मन और विचार दूषित होते हैं, साथ ही संयम की मर्यादा टूट जाती है...खण्ड-खण्ड हो जाती है। शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। मन विचारों का गुलाम और तामसी बन जाता है। अत: सात्विक गुणमय जीवन व्यतीत करने के लिए एवम् अनेकविध दोषों से बचने हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य आहार के गुण-दोषों का परिशीलन करना आवश्यक है।
अभक्ष्य आहार के दोष : कंदमूल आदि में अनंत जीवों का नाश होता है। मक्खन, मदिरा, मांस, शहद और चलित रस आदि में अनगिनत त्रस जंतुओं का नाश होता है। फलत: उनके भक्षण से मनुष्य अत्यंत क्रूर-कठोर होता है। मन विकारग्रस्त और तामसी बनता है। शरीर रोग का केन्द्र स्थान बन जाता है। क्रोध, काम, उन्माद की अग्नि अनायास ही भभक उठती है। अशाता वेदनीय कर्मों का बंध होता है। नरक गति, तिर्यंच गति, दुर्गतिमय आयुष्य का बंध होता है, मन कलुषित बन जाता है और जीवन अनाचार का धाम। साथ ही अभक्ष्य आहार के कारण उपाजिर्त पाप जीव को असंख्य-अनंत भवयोनि में भटकाते रहते हैं।
शुद्ध सात्विक भक्ष्य आहार : इसके भक्षण से जीव अनंत जीव एवम् त्रस जंतुओं के नाश से बाल-बाल बच जाता है। शरीर निरोगी, सुन्दर और स्वस्थ बनता है। मन निर्मल...प्रसन्न... सात्विक बनता है। फलस्वरूप जीव कोमल एवम् दयालु बनता है। सद्विचार और सदाचार का विकास होता है। सद्गति सुलभ हो जाती है। त्याग-तपादि संस्कारों का बीजारोपण होता है। जीवन-मरण समाधिमय बन जाता है। उत्तरोत्तर मनशुद्धि के कारण जीवन शुद्धि और उसके कारण शुभ ध्यान के बल पर परमशुद्धि रूप...मोक्ष...अणाहारी पद सुलभ बन जाता है। परिणामत: पुन: पुन: अध:पतन से आत्मा की सुरक्षा...बचाव के लिए बाईस अभक्ष्यों का परित्याग करना परमावश्यक है।
___ आहार शुद्धि जीवन जीने के लिए मनुष्य को आहार की आवश्यकता रहती है। अर्थात् जीवन जीने मे उपयोगी तत्त्व आहार है। शरीर टिकने का साधन आहार है।
लेकिन यही आहार जब आहार संज्ञा का रूप धारण कर लेता है तब वह आत्मा के लिए भारी नुकसान करता है। इसलिए इस प्रकरण में हम आहार शुद्धि के बारे में विचार करेंगे।