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________________ प्रश्न : वंदन करने के कारण कौन - कौन से हैं? उत्तर : वंदन करने के आठ कारण हैं - 1. प्रतिक्रमण : इसमें चार बार दो-दो वांदणे जो देते हैं, वे प्रतिक्रमण के लिए हैं। 2. स्वाध्याय : पढ़ाई या वाचना लेने से पूर्व वंदन करना चाहिए। 3. काउस्सग्ग : उपधान वगैरह में एक तप में से दूसरे तप में प्रवेश करने के लिए वंटन करना। 4. अपराध : अपराध की क्षमापना के लिए वंदन करना। 5. प्राणा : नये आए हुए साधु को वंदन करना। 6. आलोचना : पापों की आलोचना करने हेतु वंदन करना। 7. संवर : पच्चक्खाण लेने के लिए वंदन करना। 8. उत्तमार्थ : अनशन तथा संलेखणा अंगीकार करने के लिए वंदन करना। प्रश्न : गुरूवंदन करते समय कितने दोष टालने चाहिए? उसमें से कुछ दोष बताओ? उत्तर : गुरुवंदन करते समय 32 दोष टालने चाहिए। वांदणा के 25 आवश्यक का बराबर ख्याल न रखकर जैसे-तैसे वंदन करना, गुरू के प्रति रोष आदि रखकर मात्र करना पड़े इसलिए करें, अनादर से करें, यह सब दोष हैं। प्रश्न : दोष रहित गुरूवंदन करने से क्या लाभ होते हैं? उत्तर : दोष रहित गुरूवंदन करने से छः गुण की प्राप्ति होती है : 1. विनय, 2. अहंकार का नाश, 3. गुरू की पूजा, 4. जिनाज्ञा का पालन, 5. श्रुत धर्म की आराधना, 6. प्रचूर कर्म निर्जरा द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रश्न : गुरू के अभाव में उनकी स्थापना किस प्रकार करनी चाहिए? उत्तर : स्थापना दो प्रकार की होती है - 1. सद्भुत स्थापना : लकड़ी, पुस्तक, चित्र में गुरू के जैसा आकार कर उसमें गुरू की स्थापना करना। 2. असद्भुत स्थापना : अक्ष (अरिया), वराटक (कोड़ा) तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र के उपकरण वगैरह में गुरू का आकार नहीं होने पर भी उसमें गुरू की स्थापना करना। पुनः यह स्थापना दो प्रकार की है : 1) इत्वर स्थापना : उपरोक्त दोनों स्थापना को मात्र सामायिक आदि काल तक के नवकार, पंचिदिय से स्थापना करना। 2) यावत्कथित स्थापना : उपरोक्त दोनों स्थापना को गुरू के 36 गुणों की प्रतिष्ठा से विधि पूर्वक हमेशा के लिये स्थापना करना। प्रश्न : गुरू के अभाव में उनकी स्थापना करने की क्या जरूरत हैं? उत्तर : गुरु के अभाव में उनकी स्थापना करने से गुरू साक्षात् हमें आदेश दे रहे हैं, ऐसे भाव पैदा होते हैं। एवं उनकी निश्रा में करने से धर्मानुष्ठान सार्थक होता है। गुरू के अभाव में किया गया अनुष्ठान फलदायक नहीं बनता। जैसे परमात्मा के अभाव में उनके बिम्ब की स्थापना कर सेवा पूजा का लाभ लेते हैं। वैसे ही गुरू की स्थापना करने पर हम = 29)
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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