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________________ (आ) पदस्थ अवस्था : हे प्रभु ! आप तो अवधिज्ञान से जानते ही थे कि मुझे केवलज्ञान प्राप्त होगा और मोक्ष में जाऊँगा, तो भी आपने चारित्र लेकर घोर तपस्या की। घोर उपसर्ग सहे। समतापूर्वक सहन करके चार घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। तब देवताओं ने आकर समवसरण बनाया और उसे सुशोभित किया। तब आपने समवसरण में आकर के भव्य जीवों को बोध देने के लिये अमृत से भरी वाणी की वर्षा करके चतुर्विध संघ की स्थापना की। आपके अतिशय और वाणी के प्रभाव से अनेक पापी आत्माएं ससार समुद्र से तीर गये। पशु पक्षी भी अपना आपसी वैर भाव छोड़कर आपकी वाणी सुनने के लिये आते हैं। हर प्राणी ने अपनी-अपनी भाषा में प्रभु की देशना सुनी और अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान पाया। (इ) रूपातीत अवस्था : आपके केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद भव्य जीवों के उपकार के लिये देशना देकर बाकी के अघाती कर्मों का नाश करके, आपने सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लिया। अब आप निराकार, अशरीरी, अनंतज्ञानी, अनन्त सुखी हुये एवं जन्म, मरण, रोग, शोक, दरिद्रता आदि से रहित हो गये हैं अब आप कृतकृत्य हो गये हैं। अब आपको कुछ भी करना शेष नहीं। हमें भी ऊपर मुजब पिंडस्थाटि अवस्थाओं का चिंतन करके प्रभु गुणों को प्राप्त करना है। यानि प्रभु जैसी अवस्थाएं हमें भी प्राप्त करनी है। 6. दिशात्याग त्रिक : प्रभुजी के आगे चैत्यवंदन स्तवन स्तुति करते समय मन, वचन, काया की एकाग्रता रखने के लिये आस-पास ऊपर या पीछे तीन दिशाओं का त्याग करना, यानि अन्य तीन दिशाओं में नहीं देखना। तथा प्रभु भक्ति में ही मन लगाना। 7. प्रमार्जन त्रिक : चैत्यवंदन करने के पहले तीन बार अपने खेस से भूमि को साफ करना प्रमार्जना त्रिक कहलाता है। उपलक्षण से साथिया करने बैठते समय, और भी कुछ कारणवश बैठते समय तीन बार प्रमार्जना करना। 8. आलंबन त्रिक : (अ) वर्णालंबन, (आ) अर्थालंबन, (इ) प्रतिमा आलंबन (अ) वर्णालंबन : वचनों द्वारा सूत्रों को शुद्ध और सही रूप से बोलना (आ) अर्थालंबन : मन द्वारा सूत्रों के अर्थ का चिंतन करना। जिससे प्रभु भक्ति में एकाग्रता आती है (इ) प्रतिमा आलंबन : प्रभु की प्रतिमा को साक्षात जिनेश्वर भगवान मानना 9. मुद्रा त्रिक : (अ) योग मुद्रा, (आ) जिन मुद्रा, (इ) मुक्ता शुक्ति मुद्रा (अ) योग मुद्रा : चैत्यवंदन करते समय नमुत्थुणं आदि सूत्र बोलते समय दोनों हाथ जोड़कर, अंगुलियों को आपस में मिलाकर हाथ की कोहनी को नाभि के स्थान पर रखकर दोनों पैर के घुटने जमीन पर रखना या बांया घुटना खड़ा रखना यह योग मुद्रा है। (आ) जिन मुद्रा : काऊसग्ग करते समय पैर के आगे के भाग में चार अंगुल और पीछे के भाग में चार 15
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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