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________________ 4. पूजा त्रिक : इसके तीन प्रकार हैं। प्रथम (अ) अंग पूजा, (आ) अग्र पूजा और (इ) भाव पूजा । जो अलग-अलग, दिन में तीन बार 1. प्रात: 2. दोपहर के समय 3. शाम के समय की जाती है। (अ) अंग पूजा : प्रभुजी के अंग को स्पर्श करके की जाने वाली पूजा जैसे जल, चंदन पुष्प, यह अंग पूजा है। (आ) अग्र पूजा : धूप, दीपक, अक्षत, नैवेद्य व फल आदि से प्रभुजी की जो पूजा की जाती है, वह अग्र पूजा कहलाती है। (इ) भाव पूजा : प्रभुजी के आगे चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति आदि करना यह भाव पूजा है। नोट : जैन धर्म में भाव विहीन किसी भी धर्म क्रिया को मृतप्रायः एवं परिणाम शून्य माना गया है। भक्ति, "भाव की उत्कृष्टता'' से ही फलती है। उत्तरोत्तर उत्तम भाव से प्रभु भक्ति करने वाला मात्र अन्तर्मुहूर्त में स्व आत्म कल्याण करने में सफल हो सकता है। यानि वह जन से जिनेश्वर बन सकता है। त्रिकाल पूजा क्रम : (क) प्रात: : अपनी अंग शुद्धि (हाथ पाँव धोना) करके शुद्ध वस्त्र पहनकर धूप, दीप, अक्षत पूजा, नैवेद्य पूजा एवं फल पूजा व चैत्यवंदन किया जाता है। (ख) दोपहर के समय : अष्ट प्रकारी पूजा व स्नात्र पूजा महोत्सव दुपहर के समय हे ता है। (ग) सायंकाल : शाम को आरती, मंगल दीप, धूप पूजा व दीप पूजा एवं चैत्यवंदन किया जाता है। 5. अवस्था त्रिक : इसके तीन भेद हैं (अ) पिंडस्थ अवस्था, (आ) पदस्थ अवस्था व __(इ) रूपातीत अवस्था। (अ) पिंडस्थ अवस्था : पिंडस्थ अवस्था के भी तीन भेद हैं जो निम्न प्रकार हैं : (क) जन्म अवस्था : प्रभुजी का स्नात्र महोत्सव करते समय व पक्षाल करते समय हमारा यह चिंतन होना चाहिये कि, हे नाथ ! आपका जन्म होते ही 64 इन्द्र व 56 दिग्कुमारियों के सिंहासन चल यमान होते हैं। तब वे देवलोक से आकर आपका शुचिकर्म करते हुए जन्म महोत्सव करती हैं। तत्पश्च त् सौधर्म इन्द्र आपको मेरू शिखर पर ले जाते हैं। वहाँ सौधर्म इन्द्र स्वयं का अभिमान त्यागकर ऋषभ (बैल) रूप धारण कर अभिषेक करते हैं तथा एक करोड़ साठ लाख रत्न आदि जड़ित बड़े बड़े कलशों से देवतागण अभिषेक करते हैं तो भी आपको जरा भी अभिमान नहीं हुआ। धन्य है आपकी लघुता । (8 जाति के 8000 कलश = 64,000x250 इन्द्र-इन्द्राणी आदि देवता=1,60,00,000) (ख) राज्य अवस्था : हे नाथ ! आपको इतनी बड़ी राज्य संपत्ति और सत्ता मिलने पर भी अपको अंश मात्र राग नहीं हुआ, कमल की तरह निर्लिप्त रहे। धन्य है आपके वैराग्य को। (ग) श्रमण अवस्था : धन्य है आपको, हे प्रभो ! आपने संपत्ति व सत्ता को एकदम त्याग क के कठोर तप, घोर-परिषह, उपसर्ग आदि सहन करने के लिए चारित्र ग्रहण किया। (14
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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