________________
- जैन तत्त्व दर्शन
2. दान के पाँच प्रकार दान दुर्गति का वारक है, गुण समूह का विस्तारक है, तेज के समूह का धारक है, आपत्तियों का नाशक है, पापों का विदारक है, संसार समुद्र से निस्तारक है, धर्मोन्नति का कारण है, एवं मोक्ष प्राप्ति का कारण है। ऐसा यह दान जगत में विजयवंत है दान देने से शत्रुता नष्ट हो जाती है एवं दान से सभी प्राणी वश हो जाते है।
1. अभयदान : भय त्रस्त आत्मा को भय मुक्त करना अभयदान है। हर आत्मा को अपने प्राण प्रिय है। अगर हमें कोई मारने की कोशिश करे और फिर वो हमें छोड़ दें तो हमें कितनी खुशी होती है। उसी प्रकार हर एक जीव को अपने-अपने प्राण प्रिय होते है। किसी भी जीव की हिंसा नही करनी चाहिए।
2. सुपात्रदान : मुक्ति मार्ग के प्ररुपक एवं साधकों को सहायक बनना, उनकी भक्ति करनी सुपात्रदान है। साधु, साध्वी भगवंत को भोजन वोहराना, जरुरत की सामग्री देना उनकी भक्ति करना, विहार में सहायक बनना, उनके ठहरने के लिए जगह का ख्याल रखना चाहिए। सुपात्र में दान देनेवाले मानव भविष्य में धनाढ्य होते है और उस धन के प्रभाव से वे दान पुण्य विशेष करते है। उस पुण्य बल से देवलोकादि के उत्तम सुख प्राप्त करते है। वहाँ से पुनः धनवान होते है। परम्परा से मुक्ति सुख के उपभोक्ता बनते है।
3. अनुकम्पा दान : दीन दुःखी के दुःख दूर करना वह अनुकम्पा दान है। हमें पुण्योदय से कई सुख सामग्री मिली है। हमें अपने दरवाजे पर आये हुए किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं भेजना चाहिए।
4. उचित दान : स्वजन संबंधियों से व्यवहार निभाने हेतु, कन्या के विवाह के समय उसे शक्ति अनुसार धनमाल आदि देना उचित दान है।
5. कीर्तिदान : चारों दिशा-विदिशा में यश कीर्ति हेतु दान देना कीर्तिदान है। इनमें प्रथम के दो दान अभयदान एवं सुपात्रदान मोक्ष को देनेवाले है एवं अन्य तीन दान भौतिक सुख को देने वाले हैं।