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________________ - जैन तत्त्व दर्शन (4) धूप पूजा धूप पूजा का रहस्य इस पूजा द्वारा धूप की घटा जैसे ऊँचे जाती है, वैसे ही हमारी आत्मा उच्चगति को प्राप्त करे ध्यान घटा प्रगटावीये, वाम नयन जिन धूप मिच्छत दुर्गंध दूरे टले, प्रगटे आत्म स्वरूप ।। (अमे धूप नी पूजा करीये रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु धुप घटा अनुसरीये रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु नहीं कोई तमारी तोले रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु अंते छे शरण तमारूं रे, ओ मन मान्या मोहनजी) ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरूषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु __ निवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय धुपं यजामहे स्वाहा । भावना हे प्रभु! धूप से निकलती ये धूम्र घटायें जैसे ऊपर ही ऊपर जा रही है वैसे ही मुझे भी उर्ध्वगामी बनना है। इन धूम्रघटाओं जैसा ही पवित्र और सुगंधित मुझे बनना है। अभी हे प्रभु! इस धूप के समान मेरे अष्टकर्म भी सुलग रहे हैं। और इस मंदिर की तरह मेरा आत्म मंदिर भी सम्यक्त्व की सौरभ से महक रहा है। इस धूप को देखता हुँ और प्रभु! मुझे आपका साधनामय जीवन याद आता है। तप की अग्नि की ज्वाला को झेल कर आप ने इस जगत को महक प्रदान की है। इस धूप पूजा के प्रभाव से, हे प्रभु! मुझे भी आप जैसी "सर्वजीव करूं शासन रसी" की भावना और उस भावना को सार्थक कर दे ऐसी साधना करने की शक्ति दे। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरा आत्म स्वरूप प्रकट कर सकूँ और अनेकों को उसकी सुगंध दे सकूँ। ऐसी ध्यानदशा की मुझे भी पाने की इच्छा है।
SR No.006117
Book TitleJain Tattva Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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